मन से मन का नाता
डॉ. सुरंगमा यादव
मैं रख लूँगी मान तुम्हारा
तुम मेरा मन रख लेना
दर्द अकेले तुम मत सहना
मुझसे साझा कर लेना
मन की बात न मन में रखना
तुम चुपके से कह देना
मैं अपना सर्वस्व लुटा दूँ
नेह तनिक तुम कर लेना
देह कभी मैं बन जाऊँगी
तुम प्राणों-सा बस जाना
तुम से ही जीवन पाऊँ मैं
साँसों की लय बन आना
अनादि प्रेम की फिर अनुभूति
अन्तर्मन को दे जाना
देह बदलकर वेश नया धर
जग में हम फिर-फिर आएँ
गीत पुरातन बही प्रेम का
फिर मिलकर हम दोहराएँ
प्रीत पुनीत करे जो जग में
विधना के मन को भाता
देह से बढ़ कर होता है
मन से मन का एक नाता
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सुरँगमा जी बेहद खूबसूरत और सूक्ष्म भावों में डूबी रचना,बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteप्रीत पुनीत करे जो जग में, विधना के मन को भाता....अति सुंदर!
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति...बहुत बधाई सुरंगमा जी।
ReplyDeleteसुंदर लयात्मक कविता की बधाई।
ReplyDeleteआप सभी का हृदयतल से पुनः पुनः आभार ।
ReplyDeleteप्रिय सुरंगमा जी, आज ऐसा प्रतीत हुआ , जो मैं नहीं कह पायी , वो आपने कह दिया। सखा भाव की सरल, सहज अभिव्यक्ति जो बेजोड़ है और अक्षुण्ण आत्मीय भावों से भरी है
ReplyDeleteएक अभुतपूर्ण आत्मिक आनंद की अनुभूति दी है आपकी रचना ने। आपको कोटि आभार और शुभकामनायें इस प्यारी सी अनुराग भरी रचना के लिए 🙏🙏💐💐
रेणु जी सार्थक टिप्पणी के लिए आभार। आप भी अपनी रचनाएँ भेज सकती हैं। भेजने के लिए ई मेल है - rdkamboj@gmail.com
Deleteरेणु जी इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिए हृदय से आपके प्रति आभारी हूँ ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर संयोग शृंगार रचना।
ReplyDeleteमन के समर्पित भाव लिए।
Bahut sundar kavitaa hai haardik badhaai surangmaa ji .khed hai hindi font kaam nahee kar rahaa hai .
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है।
ReplyDeleteसुंदर रचना
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ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत रचना है।हार्दिक बधाई सुरंगमा जी !!