-मुरलीधर वैष्णव
माँ ने भले ही जन्म दिया हो उसे
मजदूरी करते हुए
कचरे के आस पास
लेकिन फेंका नहीं उसे
कचरे के ढेर पर उसने
जैसे फेंक दिया था कई कई बार
बड़ी हवेली वालों ने
अपने ही खून को
बड़ी हो गई है अब वह
उठ कर मुँह अँधेरे रोजाना
निकल पड़ती है वह बस्तियों में
कचरा बीनने
उसके कंधे से लटका
यह पोलिथीन का बोरा नहीं
किसी योगिनी का चमत्कारी झोला है
जिसमें भर लेगी वह
पूरे ब्रह्माण्ड का कचरा
सीख लिया है उसकी आँखों ने
खोजना और बीनना
हर कहीं का कचरा
भाँप लेती है उसकी आँखें
आवारा आँखों को भी
और बीन लेती है वह
उनमें भरे कचरे को भी
शाम को जब रखती है वह झोला
कबाड़ी के तराजू में
उठती है उसमें से तब
तवे पर सिकती रोटी की महक
उगता है उसमें से
उसका छोटा–सा
सपना
कचरा बीनती है वह
ताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी
बहुत खूब ...!!
ReplyDeleteमैंने भी कभी इक ऐसी ही कविता लिखी थी ...कहीं डायरी के पन्नों में पड़ी होगी ....!!
और कभी बदलाव होगा ...अब इसकी उम्मीद भी नहीं है
ReplyDeleteकचरा बीनती है वह
ReplyDeleteताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी....बहुत सुन्दर ...सारगर्भित पंक्तियाँ आपकी ...बहुत बधाई !!
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
bahut badhiya prastuti......
ReplyDeleteBahut hi samvedansheel aur saargarbhit abhivyakti.
ReplyDelete~सीख लिया है उसकी आँखों ने
ReplyDeleteखोजना और बीनना
हर कहीं का कचरा
भाँप लेती है उसकी आँखें
आवारा आँखों को भी
और बीन लेती है वह
उनमें भरे कचरे को भी~
हर जगह कचरा बिखरा पड़ा है.... कहाँ-कहाँ से बीनती होगी बेचारी.....
बहुत कुछ कह गयी ये गहन भाव लिए रचना...!
~सादर!!!
कचरा बीनती है वह
ReplyDeleteताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी
एक सार्थक सोच ...सुंदर रचना ....
आभार ॥!
हमें भी तो अपने मन का कचरा निकाल फेंकना होगा।
ReplyDeleteसामाजिक विषमता को गहनता से अनुभूत कराती मार्मिक कविता...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अर्थान्वित रचना।
ReplyDeleteकचरा बीनती है वह
ReplyDeleteताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी....बहुत सुन्दर ...सारगर्भित पंक्तियाँ आपकी ...बहुत बधाई !!
सादर
कचरा बीनती है वह
ReplyDeleteताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी..
बेहतरीन पंक्तियाँ ...आभार
सहज शब्दों में गहरे भाव ..बहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteसहज शब्दों में गहरे भाव ..बहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteउठती है उसमें से तब
ReplyDeleteतवे पर सिकती रोटी की महक
bhaiya under soch hai aur pyari panktiyan
कचरा बीनती है वह
ताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी
bhaiya anmol panktiyan hai .
bahut hi sunder kavita hai.............................
saader
rachana
बहुत गहरे अर्थ लिए हुए एक खूबसूरत रचना...बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका
Bahut gahare bhaav hain...
ReplyDeletesuperb
ReplyDelete