रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नारी
कहाँ
नहीं हारी
अस्मत की बाजी
दाँव पर लगाते रहे
सभी सिंहासन
सभी पण्डित ,सभी
ज्ञानी
सतयुग हो या कि कलियुग
कायरों की टोली
देती रही
अपनी मर्दानगी का सुबूत
इज़्ज़त तार-तार करके
देवालयों में मठों में
नचाया गया
धर्म के नाम पर
कुत्सित वासना का
शिकार बनाया गया
विधवा हुई तो
उसे जानवर से बदतर
'सौ-सौ जनम' मरने का गुर सिखाया गया,
रूपसी जब रही
तब योगी -भोगी ॠषिराज -देवराज
सभी द्वार खटखटाते रहे
छल से बल से
अपना शिकार बनाते रहे ।
जब ढला रूप
मद्धिम हुई धूप
उसे दुरदुराया, लतियाया
दो टूक के लिए
बेटों ने , पति ने , सबने सदा ठुकराया !
व्यवस्था बदल देंगे
सत्ता बदल देंगे !
लेकिन एक यक्ष प्रश्न मुँह बाए खड़ा है-
क्या संस्कार बदल पाएँगे ?
किसी दुराचारी के
स्वभाव की अकड़ तोड़ पाएँगे
क्या धन -बल , भुज-बल के मद से टकराएँगे ?
कभी नहीं !!!
रिश्ते भी जब भेड़िए बन जाएँ
तब किधर जाएँगे ?
क्या किसी दुराचारी , पिता, मामा ,चाचा आदि को
घरों में घुसकर खोज पाएँगे ?
सलाखों के पीछे पहुँचाएँगे ? या
इज़्ज़त के नाम पर सात तहों में छुपाकर
आराम से सो जाएँगे !
और नई कुत्सित दुर्घटना का इन्तज़ार करके
समय बिताएँगे !
किसी कुसंस्कारी का संस्कार
किसी बदनीयत आदमी का स्वभाव
बदल पाएँगे ?
जब ऐसा करने निकलोगे
क्या सत्ता में बैठे जनसेवकों
मठों में छुपे महन्तों,
अनाप -शनाप बोलने वाले भाग्य विधाताओं,
शिक्षा केन्द्रों में आसीन भेड़ियों को
उनके क्रूर कर्मों की सज़ा दिलवा पाओगे ?
शायद कभी नहीं , क्योंकि
सत्ता के कानून औरों के लिए हैं,
मठों में घिनौनी सूरत छिपाए
वासना के कीड़ों पर उँगली
उठाना
हमारी किताबों के खिलाफ़ है ।
अगर कुछ भी बदलना है तो
ज़हर की ज़ड़ें पहचानों
उसे काटोगे तो
वह फिर हरियाएगी
समूल उखाड़ो !
बहन को बेटी को , माँ को
उसका सम्मान दो
हर मर्द की एक माँ ज़रूर होती है
जब कोई भेड़ियों की गिरफ़्त में होता है
उस समय माँ ही लहू के आँसू रोती है ।
-0-
सर आपने चंद लाइनों में जो नारी की वेदना का वर्णन किया है वह निश्चित ही प्रशंसनीय है। इसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना चाहिए.....
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण ...
ReplyDeleteअगर कुछ भी बदलना है तो
ज़हर की ज़ड़ें पहचानों
उसे काटोगे तो
वह फिर हरियाएगी
समूल उखाड़ो !
काश दुष्ट दानव, मानवों की कविता को समझ पाते , तो आज हर नारी की आत्मा की चीख उनके अंतर्मन को चीर देती | आज मन बहुत भारी है ... नए साल की शुरुआत ऐसे होगी ... सोचा न था .. :'(
अगर कुछ भी बदलना है तो
ज़हर की ज़ड़ें पहचानों
उसे काटोगे तो
वह फिर हरियाएगी
समूल उखाड़ो !
बहन को बेटी को , माँ को
उसका सम्मान दो
हर मर्द की एक माँ ज़रूर होती है
जब कोई भेड़ियों की गिरफ़्त में होता है
उस समय माँ ही लहू के आँसू रोती है ।
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उपर्युक्त संदेशात्मक पंक्तियों के साथ बधाई . नारी व्यथा की सशक्त, सर्वोत्तम रचना . हमेशा से ही पुरुष को जन्म देनेवाली नारी भेड़ियों का शिकार बनती आई है . इस के लिए तो घर , समाज देश हो जिम्मेदार होता है जहां संस्कार ,नैतिकता नहीं होती .
हर कलम इसी स्वर को बुलंद करे ! इस बेहतरीन रचना के लिए आपको नमन भाई जी !
ReplyDeleteआपकी लेखनी को नमन भाई साहब !
ReplyDelete" हर फ़ैसले पर मेरे... मोहर की थी ताक़ीद...
जीने की आरज़ू थी... क़लम तोड़ वो गया........." :(
बहुत ही बुरे हालात हैं...... हैवान खूनी दरिंदे हमारे सामने हैं... मगर हम कुछ नहीं कर सकते..... कैसी लाचारी है...??? :(((
शायद आपकी पुकार पहुँचे मंज़िल तक...हम सब आपके साथ हैं.....
सादर
jeevan ka ghinouna sach hai me to sochti hoon aese darindon ko yadi uski apni ma ya bahan tyag den to hi theek rahega .ek ek shab jvala sa hai .
ReplyDeleterachana
कटु सत्य व्यक्त करती उत्तम रचना बहुत-2 बधाई।
ReplyDeleteसादर
Sach ko saparsh karti,marmik rachna...bahut2 badhai..
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण कटु सत्य..........
ReplyDeleteअगर कुछ भी बदलना है तो
ज़हर की ज़ड़ें पहचानों
उसे काटोगे तो
वह फिर हरियाएगी
समूल उखाड़ो ! काश ऐसा हो।
मन को झकझोरती रचना. स्त्री की पीड़ा सिर्फ स्त्री की नहीं पुरुषों की भी है. कोई स्त्री जब प्रताड़ित की जाती है तो उस स्त्री की सिर्फ माँ दुखी नहीं होती बल्कि उतना ही दुःख भाई और पिता को भी होता है. मूल प्रश्न है...
ReplyDeleteव्यवस्था बदल देंगे
सत्ता बदल देंगे !
लेकिन एक यक्ष प्रश्न मुँह बाए खड़ा है-
क्या संस्कार बदल पाएँगे ?
मन में बहुत गहरे तक उतर कर झकझोर डाला इस रचना ने...|
ReplyDeleteकाश! दुराचारी के संस्कार कभी बदले जा सकते...|
अगर कुछ भी बदलना है तो
ReplyDeleteज़हर की ज़ड़ें पहचानों
उसे काटोगे तो
वह फिर हरियाएगी
समूल उखाड़ो !
bas samasya ko jad se nasht karne ki hi jarurat hai...
बस यही तो सबको बताना है ...
ReplyDeleteकाल भी बेहाल है अब..
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