कमला निखुर्पा
मन की कथा
युग-युग -संचित
मन की
व्यथा
कितना ही छुपाऊँ
बाँचती जाऊँ ।
अंतर्घट कम्पन
रोक ना पाऊँ ।
यह कैसा उत्कर्ष ?
फैला अमर्ष ।
हर बेटी सहमी
माँ डरी -डरी ।
आँखें आँसुओं -भरी
डूबती तरी
क्यों बेबस है नारी ?
शक्ति- स्वरूपा
फिर भी क्यों
बेचारी?
अपनों से क्यों
हारी ?
-0-
nice
ReplyDeleteकमला निखुर्पा ने इस चोका कविता के माध्यम से बहुत गहन अनुभूति को सबके मन तक पहुँचाया । प्रशसनीय रचना ।
ReplyDeleteगहन भावाभिव्यक्ति..
ReplyDeletesundar abhivyakti eak dar ko aapne bahut achchhe se ujagar kiya hai...hardik badhai...
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