पथ के साथी

Thursday, August 16, 2012

गोधूलि बेला में



सुशीला शिवराण

वात्सल्य का वितान
ममता का आँचल
क्यों
 है सिमटा-सिमटा।
अंतस्
 क्यों घुटा-घुटा !


अनुभव के मोती
बाँटने को आतुर
सँवारने को हर काम
आज भी उद्यत हाथ
क्यों पीछे खिंच जाते हैं
उत्साह की चमक गई जो रेख
क्यों चेहरे की सिलवटों में
लुप्‍त होती जाती है
यह अवांछना
ले आती है आँखों में नीर
और चेहरा भिगो जाती है।

जीवन की
गोधूलि बेला में
अशक्‍त -से हाथ
शिथिल से पैर
कहते हैं तुमसे
इतने भी नहीं बेकार
गर दे सको तो दो
थोड़ा सा समय
थोड़ा सा स्नेह
फिर देखना
कैसी ऊर्जा भर देता है
तुम्हारा यह नेह!

जी उठेगा सुषुप्‍त मन
गतिमान हो उठेंगे पैर
हाथ भी पा जाएँगे शक्‍ति
यही हमारे जीवन की सद्‍गति
कहो ना मेरे कुलदीपक
क्या दे सकते हो
कुछ स्नेह के छींटे
कि उपेक्षा से उबरें हम
क्या दे सकते हो
दो पल का साथ
ताकि उद्विग्न
कुंठित मन
करे कूच
इस जहाँ से
तृप्‍त मन से।
-0-

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर....
    उत्कृष्ट कृति...

    अनु

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  2. कुछ स्नेह के छींटे
    कि उपेक्षा से उबरें हम
    दो पल का साथ
    कि उद्विग्न
    कुंठित मन
    करे कूच
    इस जहाँ से
    संतृप्‍त हो कर ।
    - मन को छू गई यह रचना !

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  3. गर दे सको तो दो
    थोड़ा सा समय
    थोड़ा सा स्नेह
    फिर देखना
    कैसी ऊर्जा भर देता है
    तुम्हारा यह नेह!...

    वाकई आज नई पीढ़ी के पास अपने बुजुर्गों के लिए बिलकुल वक्त नही है ... वे नहीं जानते कि कल ये वक्त उन्हें भी जीवन की गोधूलि वेला में ले आएगा . एक एक भाव मन को भिगो गए .

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