पथ के साथी

Sunday, June 24, 2012

फिर से नन्हीं बच्ची बना दो मुझे माँ |


कमला निखुर्पा
मन में उमडी है यादों की घटा
फिर तेरे नेह की  आयी है याद माँ,
तेरे गोदी में मिला बचपन को जो सुकून,
नहीं नसीब वो वातानुकूलित कमरों में माँ |
जाने किस माटी से गढा था विधाता ने ,
चैन से जीते  तुझे देखा नहीं कभी माँ |
सुलाए मुझे  सुनाके मीठी लोरियाँ ,
कब से गीले बिछौने पे सोई रही माँ|  
दुपहरी की धूप में तन को जला के ,
चाँद की शीतलता आँचल में भर लाई माँ |
समेट समंदर को अपनी उनींदी आँखों में,
नित नेह की गंगा में नहलाए मुझे माँ |







रिश्तों के वन में भटका जीवन हिरन,
कस्तूरी बन फिर से महका दो मुझे माँ |
कुट्टी कर आयी हूँ खुशियों से अपनी ,
आँचल में अपने  छुपा लो  मुझे माँ |
दिला  दे मुझे मेरी गुडिया और गुड्डा
फिर से नन्हीं बच्ची बना दो मुझे माँ |

14 comments:

  1. बहुत प्यारी मर्मस्पर्शी , सहजता से भरी मासूमियत की खुशबू भरे हुए । बचपन की यही खुशबू तो दुर्लभ है । कमला निखुर्पा ने भावों का सारा मधुघट उडेल दिया इस कविता में

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  2. फिर से आये प्यारा बचपन..

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  3. उत्कृष्ट |
    बहुत बहुत बधाई |

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  4. बहुत प्यारी...मन को छू लेने वाली रचना.....

    अनु

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  5. बहुत प्यारी रचना...

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  6. लौट आया बचपन...बहुत सुन्दर....

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  7. काश, फिर से लौट आता बचपन. रचना मन को छू गई.

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति माँ को मूर्त करती स्मृतियाँ उड़ेलती मेरे उसके बचपन की .... ..... .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    सोमवार, 25 जून 2012
    नींद से महरूम रह जाना उकसाता है जंक फ़ूड खाने को
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    वीरुभाई ,४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ,४८ ,१८८ ,यू एस ए .

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  9. बचपन की यादों में खोया मन ...बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  10. कमला जी की सुंदर रचना दिल को छू गई

    खासकर ये पंक्तियाँ तो बस कमाल हैं

    तेरे गोदी में मिला बचपन को जो सुकून,
    नहीं नसीब वो वातानुकूलित कमरों में माँ |

    बहुत बधाई

    हरदीप

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  11. तेरे गोदी में मिला बचपन को जो सुकून,
    नहीं नसीब वो वातानुकूलित कमरों में माँ |

    बहुत सुन्दर

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  12. बेहद भावपूर्ण और सुंदर कविता। बरबस माँ की याद दिला ही गई! सच माँ त्याग की मूर्ति ही तो है -

    "दुपहरी की धूप में तन को जला के ,
    चाँद की शीतलता आँचल में भर लाई माँ

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  13. ज्योत्स्ना शर्मा10 July, 2012 12:10

    रिश्तों के वन में भटका जीवन हिरन,
    कस्तूरी बन फिर से महका दो मुझे माँ ......माँ होती है समर्थ सुरभित करने में ....अभी तो मन सुरभित हो गया आपकी रचना से ...बधाई आपको

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