पथ के साथी

Sunday, August 15, 2010

आटे की चिड़िया (हाइकु)

- डॉ हरदीप संधु रामेश्वर काम्बोजहिमांशु
मुन्नी जो रोए
आटे की चिड़िया से
माँ पुचकारे !
चिड़िया मिली
मुनिया की बिखरी
दूधिया हँसी ।
उड़ती नहीं
आटे की चिरइया
ओ मेरी मैया !
अभी ये छोटी
उड़ेगी तब जब
खाएगी रोटी ।
रोटी ही लाओ
माँ इसको खिलाओ
उड़ेगी फुर्र !
रोटी खाकर जब
ये फुर्र से उड़ जाएगी
हाथ नहीं आएगी ।

9 comments:

  1. अच्छी जुगलबन्दी रही!


    स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

    सादर

    समीर लाल

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  2. मेरी ओर से स्वतन्त्रता-दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें!
    --
    वन्दे मातरम्!

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  3. वाह जी वाह !
    इसे कहते हैं एक जैसी सोच का सही सुमेल.'
    'स्टूडेण्ट - टीचर का व्यू प्वाइण्ट....व्हाट अ सिमिलर व्यू प्वाइण्ट.
    एक ने बात शुरू की....दूसरे ने पूरी की....
    सात समन्दर का फ़ासला... और उमर का अन्तर....बिल्कुल बीच नही आया.
    और 'तस्वीर' ने तो इस हाइकु-कविता को और भी खूबसूरत बना दिया है.
    कोई समझे तो जाने....कैसे दो अलग-अलग कलमं
    से लिखी बात एक ही कहानी कह रही है.।

    डॉ हरदीप सन्धु

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  4. Bahut khubsurat jugalbandi...bahut payare haikoo..bahut 2 badhai..

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  5. बहुत प्यारी कविता है इसे पढ अपने बचपन की याद आ गयी जब मां काम में लगी रहती हमें आटे की चिडिया दे बहलाती ताकि हम खेलते रहे .......।

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  6. Mujhe to ye badi achhi lagi. Apna bachpan yaad aa gaya.

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  7. अरे आपकी आटे की चिड़िया मुझे बहुत सुन्दर लगी ! बधाई स्वीकार करें !
    रेखा मैत्र
    rekhamaitra.com

    rekha.maitra@gmail.com

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  8. डॉ हरदीप संधु –रामेश्वर काम्बोज‘हिमांशु’ जी!
    आपको बार-बार धन्यवाद।
    आपकी रचना को पढ़ कर मुझे अपने बचपन की याद आ गई। सन ५१-५२ की बात है। उस समय हर घर में चूल्हे में लकड़ी की आँच पर रोटियाँ सेकी जाती थीं। मेरी माँ अब इस लोक में नहीं है वह भी उसी प्रकार रोटियाँ बनाती थी। रोटियाँ बनाते समय कभी-कभी वह आटे की चिड़िया बनाती, आग में भूनती और मुझे खेलने के लिए देती थी। चिड़िया रूप में आटे का बना यह एक खिलौना बालमन के लिए मनोरंजन का साधन हो जाता। मैं थोड़ी देर तक उस खिलौने से खेलता और बाद में उसे खा जाता था। इस ममत्व में उसकी गहरी सूझबूझ छिपी थी।
    उस काल में जंकफूड का इतना प्रचलन न था जितना आजकल है। सभी परिवारों में माताएं ताजा खाना बनाती थीं और पूरा परिवार तॄप्त होता था। संयुक्त परिवार में काम के बोझ के बीच यदि कभी भोजन में विलंब होता और बालमन उसके लिए आकुल होता तो शायद यह उसके पास अच्छा विकल्प था। ऐसा अब मुझे लगता है।
    आपकी इस रचना की चर्चा मैं अपने ब्लाग पर कर रहा हूँ।
    सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

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