- डॉ हरदीप संधु –रामेश्वर काम्बोज‘हिमांशु’
मुन्नी जो रोए
आटे की चिड़िया से
माँ पुचकारे !
चिड़िया मिली
मुनिया की बिखरी
दूधिया हँसी ।
उड़ती नहीं
आटे की चिरइया
ओ मेरी मैया !
अभी ये छोटी
उड़ेगी तब –जब
खाएगी रोटी ।
रोटी ही लाओ
माँ इसको खिलाओ
उड़ेगी फुर्र !
रोटी खाकर जब
ये फुर्र से उड़ जाएगी
हाथ नहीं आएगी ।
अच्छी जुगलबन्दी रही!
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
मेरी ओर से स्वतन्त्रता-दिवस की
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें!
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वन्दे मातरम्!
वाह जी वाह !
ReplyDeleteइसे कहते हैं एक जैसी सोच का सही सुमेल.'
'स्टूडेण्ट - टीचर का व्यू प्वाइण्ट....व्हाट अ सिमिलर व्यू प्वाइण्ट.
एक ने बात शुरू की....दूसरे ने पूरी की....
सात समन्दर का फ़ासला... और उमर का अन्तर....बिल्कुल बीच नही आया.
और 'तस्वीर' ने तो इस हाइकु-कविता को और भी खूबसूरत बना दिया है.
कोई समझे तो जाने....कैसे दो अलग-अलग कलमं
से लिखी बात एक ही कहानी कह रही है.।
डॉ हरदीप सन्धु
Bahut khubsurat jugalbandi...bahut payare haikoo..bahut 2 badhai..
ReplyDeleteबहुत प्यारी कविता है इसे पढ अपने बचपन की याद आ गयी जब मां काम में लगी रहती हमें आटे की चिडिया दे बहलाती ताकि हम खेलते रहे .......।
ReplyDeleteMujhe to ye badi achhi lagi. Apna bachpan yaad aa gaya.
ReplyDeleteअरे आपकी आटे की चिड़िया मुझे बहुत सुन्दर लगी ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteरेखा मैत्र
rekhamaitra.com
rekha.maitra@gmail.com
mazedar lagi .
ReplyDeleteडॉ हरदीप संधु –रामेश्वर काम्बोज‘हिमांशु’ जी!
ReplyDeleteआपको बार-बार धन्यवाद।
आपकी रचना को पढ़ कर मुझे अपने बचपन की याद आ गई। सन ५१-५२ की बात है। उस समय हर घर में चूल्हे में लकड़ी की आँच पर रोटियाँ सेकी जाती थीं। मेरी माँ अब इस लोक में नहीं है वह भी उसी प्रकार रोटियाँ बनाती थी। रोटियाँ बनाते समय कभी-कभी वह आटे की चिड़िया बनाती, आग में भूनती और मुझे खेलने के लिए देती थी। चिड़िया रूप में आटे का बना यह एक खिलौना बालमन के लिए मनोरंजन का साधन हो जाता। मैं थोड़ी देर तक उस खिलौने से खेलता और बाद में उसे खा जाता था। इस ममत्व में उसकी गहरी सूझबूझ छिपी थी।
उस काल में जंकफूड का इतना प्रचलन न था जितना आजकल है। सभी परिवारों में माताएं ताजा खाना बनाती थीं और पूरा परिवार तॄप्त होता था। संयुक्त परिवार में काम के बोझ के बीच यदि कभी भोजन में विलंब होता और बालमन उसके लिए आकुल होता तो शायद यह उसके पास अच्छा विकल्प था। ऐसा अब मुझे लगता है।
आपकी इस रचना की चर्चा मैं अपने ब्लाग पर कर रहा हूँ।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी