अनिमा दास, सॉनेटियर , कटक, ओड़िशा
1-क्लांति
इस तृष्णा से तुम हो क्यों अपरिचित
इस अग्नि से तुम हो क्यों अवरोधित
मेरे शून्य महाग्रह का यह तृतीय प्रहर
है मौन विभावरी का यह शेष अध्वर
इस क्षुधा से भी तुम हो ऐसे अज्ञात
इस श्रावण से हो तुम जैसे प्रतिस्नात
मेरी परिधि में नहीं अद्य उत्तर तुम्हारा
मेरे परिपथ पर नहीं कोई शुक्रतारा।
इस एकांत महाद्वीप पर है ग्रीष्मकाल
भस्मसात निशा...व पीड़ा-द्रुम विशाल
समग्र सत्व है निरर्थक...अति असहाय
मृत-जीवंत, स्थावर-जंगम सभी निरुपाय
इस अंतहीन मध्याह्न की नहीं है श्रांति
ऊषा के दृगों से क्षरित अश्रुधौत क्लांति।
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मोहवश मैंने कहा, ऐ नीड़ हो जाओ अदृश्य
क्षण में ही शून्य हुआ ग्रह -विग्रह.. समग्र अंतरिक्ष
क्षुब्ध हो कहा मैंने, मेरी एकाकी अभीप्सा रहे अस्पृश्य
सर्ग से निसर्ग पर्यंत लंबित,हो जाए तिक्तता का वृक्ष,
संभव हुआ अकस्मात्। विक्षिप्त उल्काओं की वृष्टि,
स्तंभित आत्मा की आर्तध्वनि,नीलवर्ण में हुई द्रवित।
व्यासिद्ध अंतरीप की पूर्व दिशा में थी उसकी दृष्टि
चीत्कार! चीत्कार! अनाहूत पीड़ाओं में अद्य स्वरित
वह समस्त अभियाचनाएँ हुईं जीवित.. तत्क्षणात्
वह नहीं हुआ संभव.. देह की सुगंध में था गरल
वारिदों के घोर निनाद में लुप्त हुआ था क्रंदन स्यात्
समग्रता का एक अंश क्या था.. स्थल अथवा जल?
मैं शून्य की मंदाकिनी..किंतु अप्राप्ति की तृष्णा अनंत
कहाँ है आदि-अंत की वह अदिष्ट ज्यामितिक प्रत्यंत?
बहुत सुंदर,भावपूर्ण सॉनेट ।बधाई अनिमा दास जीं। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteजी अशेष धन्यवाद 🙏🌹
Deleteमन के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति! अनिमा दास बधाई! यूँ ही लिखती रहिए . - रीता प्रसाद
ReplyDeleteजी अशेष धन्यवाद 🙏🌹
Deleteअति सुन्दर भाषा के साथ उत्कृष्ट अभिव्यक्ति।हार्दिक बधाई अनिमा जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति...हार्दिक बधाई अनिमा जी।
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