पथ के साथी

Tuesday, September 30, 2025

1473

 अनिमा दास, सॉनेटियर , कटक, ओड़िशा 

  

1-क्लांति 

 


इस तृष्णा से तुम हो क्यों अपरिचित
  

इस अग्नि से तुम हो क्यों अवरोधित  

मेरे शून्य महाग्रह का यह तृतीय प्रहर 

है मौन विभावरी का यह शेष अध्वर 

 

इस क्षुधा से भी तुम हो ऐसे अज्ञात 

इस श्रावण से हो तुम जैसे प्रतिस्नात 

मेरी परिधि में नहीं अद्य उत्तर तुम्हारा 

मेरे परिपथ पर नहीं कोई शुक्रतारा।

 

इस एकांत महाद्वीप पर है ग्रीष्मकाल 

भस्मसात निशा...व पीड़ा-द्रुम विशाल 

समग्र सत्व है निरर्थक...अति असहाय 

मृत-जीवंत, स्थावर-जंगम सभी निरुपाय

 

 

इस अंतहीन मध्याह्न की नहीं है श्रांति

ऊषा के दृगों से क्षरित अश्रुधौत क्लांति।

 

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 2-प्रत्यंत 

 

मोहवश मैंने कहा, ऐ नीड़ हो जाओ अदृश्य 

क्षण में ही शून्य हुआ ग्रह -विग्रह.. समग्र अंतरिक्ष 

क्षुब्ध हो कहा मैंने, मेरी एकाकी अभीप्सा रहे अस्पृश्य

सर्ग से निसर्ग पर्यंत लंबित,हो जाए तिक्तता का वृक्ष,

 

संभव हुआ अकस्मात्। विक्षिप्त उल्काओं की वृष्टि,

स्तंभित आत्मा की आर्तध्वनि,नीलवर्ण में हुई द्रवित।

व्यासिद्ध अंतरीप की पूर्व दिशा में थी उसकी दृष्टि 

चीत्कार! चीत्कार! अनाहूत पीड़ाओं में अद्य स्वरित 

 

वह समस्त अभियाचनाएँ हुईं जीवित.. तत्क्षणात् 

वह नहीं हुआ संभव.. देह की सुगंध में था गरल 

वारिदों के घोर निनाद में लुप्त हुआ था क्रंदन स्यात्

समग्रता का एक अंश क्या था.. स्थल अथवा जल?

 

मैं शून्य की मंदाकिनी..किंतु अप्राप्ति की तृष्णा अनंत 

कहाँ है आदि-अंत की वह अदिष्ट ज्यामितिक प्रत्यंत?

Sunday, September 28, 2025

1472

 1-अनुपमा त्रिपाठी ‘सुकृति

1


कल- कल बहती हुई नदी

यूँ ही तराशती है

तिकोने पत्थरों को

और ले जाती है चुभन

हर बार

अपने साथ

इस तरह

कि तराशते रहने से ही

गोल पत्थरों के होने का वजूद है

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2

रात फिर नींद नहीं आई

कि अनायास महकती रही यादें

कि हरसिंगार बरसता रहा टप- टप

भीनी- भीनी ख़ुशबू से

शब्दों का बरसना देखती रही

और बुनती रही नायाब सी

अपनी प्रेमासक्त कविता...!!!

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2-जीवन की कीमत/ डॉ. सुरंगमा यादव

 


चंद सिक्के बड़े जिंदगी से हुए,

जीवन की कीमत सिफर हो गई

पत्थरो के कलेजे पिघलते नहीं

मिन्नतें तो सभी बेअसर हो गईं

गिड़गिड़ाई बहुत हाथ भी जोड़कर,

अनसुनी हरेक याचना हो गई

 जिस गुलिस्ताँ में उसने खिलाए सुमन

हर क्यारी सामने ही धुआँ हो गई

सात फेरों की अग्नि चिता थी बनी

जिसमें जीते जी राख कामना हो गई

न सती वो हुई, न ही जौहर किया,

मैं सुहागन मरूँ यही की थी दुआ

वो सुहाग के हाथों होलिका हो गई

जान पर  बनी, पाँव देहरी लाँघ चले

पर ज़माने की नजरें, की बेड़ियाँ हो गईं

सुलह समझौतों के कितने चले सिलसिले

आखिरी घड़ी भी आज आ खड़ी हो गई

कितनी चीखें दीवारों से टकराती रहीं

देहरियों पे जिंदगी स्वाहा हो गई।

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Friday, September 19, 2025

1471-काकोरी ट्रेन एक्शन

 

विता-

काकोरी ट्रेन एक्शन

 शिवानी रावत , बी.ए.तृतीय वर्ष

 


किसे पुकारूँ बिस्मिल कहकर

रोशन सिंह जाने कहाँ खो गया

कैसे भूल जाऊँ राजेंद्र तुम्हें

तू तो ब्रिटिश राज को दहला गया

आँखों में मौत का खौफ न था

 तुम्हें जन्नत का शौक न था

जिंदगी  वतन के नाम थी

धन्य हो वीर सपूतो!

तुम्हारी नींद वतन पर नीलम थी

जिक्र छिड़ा जब अशफाक उल्ला का

फिर-फिर काकोरी एक्शन याद गया

पलकों में आँसू छुपाए

बस इतनी सी ख्वाहिश रखती हूँ

मेरे वतन की आबरू सलामत रहे

खुदा से यही गुजारिश करती हूँ

पाल लूँगी मैं भी अपने हाथों में

हुनर लाजवाब

पूरा करूँगी मैं भी अपने वतन का

हर एक ख्वाब

न मैली होने दूँगी उस आजादी को

जिस पर लगा गुलामी का दाग

हर वीर अपने खून से धो गया ।।

 

Sunday, September 14, 2025

1470-हिन्दी -दिवस

डॉ. कनक लता मिश्रा



तुम स्रोत हो, तुम भाव हो

तुम शक्ति हो, तुम प्रभाव हो

हस्ती हमारी तुमसे है

 मेरा पथ हो तुम, तुम्हीं पड़ाव हो

अज्ञान का तम छँट गया,

घनघोर बादल हट गया

अंतः तमस् ज्योतित हुआ,

तुम वह अलौकिक प्रकाश हो

अतिशय तुम्हारे रूप हैं,

अतिशय तुम्हारी शैलियाँ

कभी गद्य में कभी पद्य में,

हर रंग में अठखेलियाँ

डूबी तुम्हारे ज्ञान रस,

तब पार उतरीं कश्तियाँ

उत्कृष्ट तुम, तुम दिव्य हो,

तुम ईश्वरीय नैवेद्य हो


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