पथ के साथी

Tuesday, July 29, 2025

1476-4 कविताएँ-

कविताएँ-

1-मैं शिला पर रेख हूँ/ डॉ . सुरंगमा यादव

 

दीप की मैं लौ नहीं हूँ,

 जो हवा दम-खम दिखाए

 मैं लहर भी नहीं कोई

 छू किनारा लौट जाए

 और गोताखोर भी मैं वो नहीं जो

 हाथ खाली लौट आए

 मैं नहीं वो स्वाति- बिन्दु

विषधरों का विष बढ़ाए

काँच का टुकड़ा नहीं मैं

जो शिला से टूट जाए

 मैं शिला पर रेख हूँ

 आँधियों के बाद खिलती धूप हूँ

 वक्त मेरे रथ का पहिया

 सारथी भी मैं,

 मैं ही सवार हूँ।

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2- चाँद तुम कब आओगे / डॉ. कनक लता

व्याकुल हुई सी एक नदी ने

एक दिन पुकारा चाँ को 

चाँद तु तुम कब आओगे?

 

लंबी हैं अमावस की रातें 

कलकल में छुपी अगण्य बातें 

अवसाद के डेल्टा को पिघलाने 

चाँ तुम कब आओगे?

 

चारों ओर घुप्प अँधेरा है 

रोशनी का ना कहीं बसेरा है 

नहीं पा रही खुद की भी थाह  

चाँद तुम कब आओगे?

 

बदल गयी दिशाएँ मेरी

लयहीन हुईं लहरें मेरी 

लक्ष्य भी खो रहा सा है 

चाँद तुम कब आओगे

 

धूमिल हुआ मेरा रूप रंग 

अनावृत्ति होती मेरी हर तरंग 

धवल चाँदनी को बिखराने 

चाँद तुम कब आओगे 

 

विरह,एक अन्तर्निहित सुख 

मिलन की आस का सुख 

अवबोध तो है मुझे फिर भी 

चाँद तुम कब आओगे?

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3-हरियाली की चादर/ अनिता मंडा

 

  हरियाली की चादर ओढ़ 

धरती सुख की करवट सोई है

 

धीमी-धीमी बूँदाबादी से

भीगती है हरी ओढ़नी

उनींदी सी धरा

पलकें खोल फिर मूंद लेती है

 

हे ईश्वर!

सुख के पल थोड़े लंबे कर दो

दुःख तुम थोड़ा विश्राम कर लो

कि मन अब थक गया है

तुमसे निबाहते हुए।

 

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4- बरसाती नदी:(एक स्मृति-व्रत की गाथा)/डॉ.पूनम चौधरी

 

 

हर वर्ष

जब आकाश

अपनी थकी हुई पलकों पर

बादल की राख मलता है —

वह उतरती है...

 

नदी नहीं,

कोई विस्मृत स्मृति जैसे

धरती की जड़ों से फूटकर

फिर एक बार

अपने खोए हुए उच्चारण को

जल में ढालने चल पड़ती है

 

उसका बहाव —

न वेग है, न विलंब

वह एक प्राचीन संकल्प-सा

हर सावन

उसी रास्ते लौटती है

जहाँ मिट्टी अब भी

उसके नाम का ऋण लिये बैठी है

 

वह जल नहीं लाती

लाती है वह चुप्पी

जो रेत की दरारों में

बीज की तरह पली थी —

और अब

बूँद-बूँद

अर्थ बनने लगी है

 

वह बहती है

जैसे कोई पुराना अभिशाप

अपने आप को धोते हुए

मुक्ति की कोई भाषा रच रहा हो

 

हर मोड़ पर

वह एक नई असहमति लिखती है —

चट्टानों पर

उखड़े हुए पीपलों की जड़ों में

उस आखिरी कच्चे पुल की दरारों में

जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता

 

कभी वह खेतों को छूती है

जैसे कोई प्रेयसी

लौट आई हो

उस देह की गंध तक

जिसे वह बरसों से भूल नहीं पाई

 

और फिर

उसी मिट्टी को

एक थकी हुई साँस की तरह

अपने साथ बहा ले जाती है

 

जैसे प्रेम, जब बँध नहीं पाता

तो बह जाता है —

चुपचाप, निःशब्द, निर्विवाद

 

उसके भीतर

बहते हैं गाँवों के वे नाम,

जिन्हें अब केवल

सूखे कुओं की साँसें पहचानती हैं —

या वे दहलीज़ें

जिन्होंने कभी अपने ऊपर

पाँवों की छाँव देखी थी

 

वह बहती है

तो लगता है

जैसे कोई देवी

अपना अकूत वैभव

लुटाकर

फिर अकेली लौटती है

अपने ही भीतर

 

और जब

सावन समर्पित कर स्वयं को

हो जाता है हल्का

तो नदी भी

किसी अज्ञात लहर की तरह

समाहित होने लगती है

भँवर में

 

न कोई शोक

न उत्सव —

बस तट पर रह जाते हैं

कुछ पुरानी चूड़ियाँ

कुछ टूटी हुई नावें

अधूरे घोंसले

और

पेड़ की जड़ों में उलझे रिश्ते

और

कुछ क्लान्त पगचिह्न

जिन्हें अगली बरसात

फिर वहाँ ले जाएगी

---

 

बरसाती नदी —

इतिहास है, स्मृतियों का

अनुष्ठान है व्यथाओं का

जल नहीं, ज्वर है —

जो हर वर्ष लौटता है

उतरने के लिए

संचित पीड़ा और कुंठा

बहा देने को

एक नई आकृति में

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Friday, July 25, 2025

1475

 मन- आँगन झंकार

शीला मिश्रा



आया है सावन , है मनभावन, बहने लगी बयार।
बूँदों से सजती, न्यारी धरती, टिपटिप की है धार।।
नदियाँ है हरसे,उपवन सरसे, पुलकित है संसार ।
पीहू की गुनगुन, प्यारी सी धुन, मन आँगन झंकार।।

बूँदों की छन-छन, समीर सनसन, हुई सुहानी भोर ।
कोयल मतवाली, छटा निराली, थिरक रहा है मोर।।
सजनी हरषा , कजरी गा, मन को भाये शोर।
सब झूला झूलें ,नाचें झूमें, धूम मची  चहुँ ओर।।

है चुनरी धानी, रिमझिम पानी, धरा करे सिंगार।
भीगा है आँगन,भीग रहा मन, छलके उर उद्गार।।
प्रियतम से दूरी, हिय मजबूरी, ताके नैना द्वार।
कहते हो कल कल, बीता पल पल, रुके न अश्रुधार।।

सब ढोलक लाएँ,साज सजाएँ, गाएँ मीठा गीत।
भौंरे की गुनगुन, चूड़ी छनछन, छेड़े है संगीत।।
चुटकी लें सखियाँ, मीठी सुधियाँ, जागे मन में प्रीत।
पायल की रुनझुन,कहती सुनसुन,आओ जल्दी मीत।।


बी-4,सेक्टर-2, रॉयल रेसीडेंसीशाहपुरा थाने के पास, बावड़ियाँलाँ, भोपाल (म.प्र.)-462039 

मोबा-9977655565

Wednesday, July 16, 2025

1474

 हरेला हरियाली का लोकपर्व/ कमला निखुर्पा



 


 देवभूमि उत्तराखंड में सावन मास के पहले दिन हरियाली का लोकपर्व हरेला उत्साह से मनाया जाता है ।

हरेला की तैयारी

 सावन मास से  नौ दिन पहले आरम्भ हो जाती है।  सात  प्रकार के अन्न मक्का, तिल सरसों, उड़द, जौ आदि को बाँस या रिंगाल की टोकरी में बोकर पूजास्थल में रखा जाता है। नौ दिन बाद नवांकुरों को  हरेला पर्व के दिन पूजा के बाद अपने परिजन, इष्ट-मित्रों के सर पर आशीर्वाद स्वरूप यह कहते हुए रखा जाता है -

जी रया,

जागि रया,

यो दिन यो मास

भेटने रया


(जीते रहना, जाग्रत रहना, इस दिन, इस मास को  भेंटते रहना अर्थात्  ये शुभ दिन आपके जीवन में बार-बार आए )

1

सजे हैं द्वार

पकवान महके

आनंद वार ।

2

सप्त अन्न से

अंकुरित हरेला

कृषि का मेला।

3

 सिर पे धरे

नवांकुर हरेला

आशीष झरे ।

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Monday, July 14, 2025

1473

1-ओ फूल बेचने वाली स्त्री!

अनिता मंडा

 


 

ओ फूल बेचने वाली स्त्री!

    मुझे नहीं पता

    कब से कर रही हो प्रतीक्षा

    फूलों की टोकरी उठाए

    होने लगी होगी पीड़ा

    तुम्हारी एड़ियों में

 

तुम्हारे उठे हुए कंधे

     कितना सुंदर बना रहे हैं तुम्हें!

 


ओ फूल बेचने वाली स्त्री!

      मुझे नहीं पता

      फूल चुनते हुए

      तुम्हारी उँगलियों को

      छुआ होगा काँटों ने

      तुम्हारे गोदनों को

      चूम लिया होगा

       तुम्हारे प्रेमी ने

 

मुद्रा गिनते तुम्हारे हाथ

   कितना सुंदर बना रहे हैं तुम्हें!

 

ओ फूल बेचने वाली स्त्री!

     मुझे नहीं पता

     तुम गई हो कभी देवालय

     इन मालाओं को पहनने को

     महादेव हो रहे होंगे आकुल

     एक-एक अर्क-पुष्प को

     धर लेंगे शीश

    

यह श्रद्धा का संसार

  कितना सुंदर बना रहा है तुम्हें! 

 

ओ फूल बेचने वाली स्त्री!

    तुम्हें नहीं पता

     तुम्हारे फूलों में

     मुस्कुराते हैं महादेव

     तुम्हारे परिश्रम में 

     आश्रय पाता है सुख

 

दारुण दुःख भरे संसार को

   कितना सुंदर बना रही  हो तुम!

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2-दुःख नहीं घटता

अनिता मंडा

 

बहुत रो लेने के बाद भी

दुःख नहीं घटता

न पुराना पड़ता है

 


सोते-सोते अचानक

नींद के परखच्चे उड़ते हैं

स्मृति के बारूद

रह रहकर सुलगते हैं

 

बहुत रो लेने के बाद भी

हृदय की दाह नहीं बुझती

 

शब्दों के रुमाल सब गीले हो गए

घाव हरे रिस जाते हैं

 

चोट जब गहरी लगी हो

रूदन हृदय चीरकर निकलता है

 

सौ सूरज उगकर भी

अँधेरे की थाह नहीं पाते

 

गले में ठहरी रुलाई

खींच रही है गर्दन की नसें

 

मृत्यु का दिल 

एक कलेजे से नहीं भरता

वो रोज़ ही मेरा

लहू खींच रही है

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 3-मंजु मिश्रा



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