कविताएँ-
1-मैं शिला पर रेख हूँ/ डॉ . सुरंगमा यादव
दीप की मैं लौ नहीं हूँ,
जो हवा दम-खम दिखाए
मैं लहर भी नहीं कोई
छू किनारा लौट जाए
और गोताखोर भी मैं वो नहीं
जो
हाथ खाली लौट आए
मैं नहीं वो स्वाति- बिन्दु
विषधरों का विष बढ़ाए
काँच का टुकड़ा नहीं मैं
जो शिला से टूट जाए
मैं शिला पर रेख हूँ
आँधियों के बाद खिलती धूप हूँ
वक्त मेरे रथ का पहिया
सारथी भी मैं,
मैं ही सवार हूँ।
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2- चाँद तुम कब आओगे / डॉ. कनक लता
व्याकुल हुई सी एक नदी ने,
एक दिन पुकारा चाँद को
चाँद तु तुम कब आओगे?
लंबी हैं अमावस की रातें
कलकल में छुपी अगण्य बातें
अवसाद के डेल्टा को पिघलाने
चाँद तुम कब आओगे?
चारों ओर घुप्प अँधेरा है
रोशनी का ना कहीं बसेरा है
नहीं पा रही खुद की भी थाह
चाँद तुम कब आओगे?
बदल गयी दिशाएँ मेरी
लयहीन हुईं लहरें मेरी
लक्ष्य भी खो रहा सा है
चाँद तुम कब आओगे?
धूमिल हुआ मेरा रूप रंग
अनावृत्ति होती मेरी हर तरंग
धवल चाँदनी को बिखराने
चाँद तुम कब आओगे
विरह,एक अन्तर्निहित सुख
मिलन की आस का सुख
अवबोध तो है मुझे फिर भी
चाँद तुम कब आओगे?
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3-हरियाली की चादर/ अनिता मंडा
धरती सुख की करवट सोई
है
धीमी-धीमी बूँदाबादी से
भीगती है हरी ओढ़नी
उनींदी सी धरा
पलकें खोल फिर मूंद
लेती है
हे ईश्वर!
सुख के पल थोड़े लंबे कर
दो
दुःख तुम थोड़ा विश्राम
कर लो
कि मन अब थक गया है
तुमसे निबाहते हुए।
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4- बरसाती नदी:(एक स्मृति-व्रत की गाथा)/डॉ.पूनम चौधरी
हर वर्ष
जब आकाश
अपनी थकी हुई पलकों पर
बादल की राख मलता है —
वह उतरती है...
नदी नहीं,
कोई विस्मृत स्मृति
जैसे
धरती की जड़ों से फूटकर
फिर एक बार
अपने खोए हुए उच्चारण
को
जल में ढालने चल पड़ती
है
उसका बहाव —
न वेग है, न विलंब
वह एक प्राचीन
संकल्प-सा
हर सावन
उसी रास्ते लौटती है
जहाँ मिट्टी अब भी
उसके नाम का ऋण लिये बैठी है
वह जल नहीं लाती
लाती है वह चुप्पी
जो रेत की दरारों में
बीज की तरह पली थी —
और अब
बूँद-बूँद
अर्थ बनने लगी है
वह बहती है
जैसे कोई पुराना अभिशाप
अपने आप को धोते हुए
मुक्ति की कोई भाषा रच
रहा हो
हर मोड़ पर
वह एक नई असहमति लिखती
है —
चट्टानों पर
उखड़े हुए पीपलों की
जड़ों में
उस आखिरी कच्चे पुल की
दरारों में
जहाँ से कोई लौटकर नहीं
आता
कभी वह खेतों को छूती
है
जैसे कोई प्रेयसी
लौट आई हो
उस देह की गंध तक
जिसे वह बरसों से भूल
नहीं पाई
और फिर
उसी मिट्टी को
एक थकी हुई साँस की तरह
अपने साथ बहा ले जाती
है
जैसे प्रेम, जब बँध नहीं पाता
तो बह जाता है —
चुपचाप, निःशब्द, निर्विवाद
उसके भीतर
बहते हैं गाँवों के वे
नाम,
जिन्हें अब केवल
सूखे कुओं की साँसें
पहचानती हैं —
या वे दहलीज़ें
जिन्होंने कभी अपने ऊपर
पाँवों की छाँव देखी थी
वह बहती है
तो लगता है
जैसे कोई देवी
अपना अकूत वैभव
लुटाकर
फिर अकेली लौटती है
अपने ही भीतर
और जब
सावन समर्पित कर स्वयं
को
हो जाता है हल्का
तो नदी भी
किसी अज्ञात लहर की तरह
समाहित होने लगती है
भँवर में
न कोई शोक
न उत्सव —
बस तट पर रह जाते हैं
कुछ पुरानी चूड़ियाँ
कुछ टूटी हुई नावें
अधूरे घोंसले
और
पेड़ की जड़ों में उलझे
रिश्ते
और
कुछ क्लान्त पगचिह्न
जिन्हें अगली बरसात
फिर वहाँ ले जाएगी
---
बरसाती नदी —
इतिहास है, स्मृतियों का
अनुष्ठान है व्यथाओं का
जल नहीं, ज्वर है —
जो हर वर्ष लौटता है
उतरने के लिए
संचित पीड़ा और कुंठा
बहा देने को
एक नई आकृति में
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सभी रचनाकारों को उत्कृष्ट सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर है चारों कविताएँ, हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteअच्छी कविताएँ, सभी को हार्दिक बधाई, शुभकामनाएँ। लगातार इस पटल से अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं-संपादक जी का आभार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविताएं। बधाई सभी को
ReplyDeleteअलग-अलग भाव बोध की चारों रचनाएँ, विषय वस्तु एवं बुनावट दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हैं। सभी कवयत्रियों को बधाई
ReplyDeleteमेरी कविता को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार भैया।अनिता मंडा जी,कनकलता मिश्रा जी,पूनम चौधरी जी आप सभी को सुंदर रचनाओं के सृजन हेतु बहुत-बहुत बधाई।
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