रणभेरी-2
डॉ. सुरंगमा यादव
धोखा खाते रहने की तो आदत-सी
पड़ी हमारी
तभी जागते हैं हम जब नुकसान उठा लेते भारी
हवा के रुख का हम कैसे अनुमान नहीं लगाते हैं
दीपक बुझने से पहले क्यों ओट
नहीं कर पाते हैं
रहें पीटते खूब लकीरें साँप नहीं मर पाएगा
मौका मिलते ही वह फिर से अपना फन फैलाएगा
जो मरने पर तुले हुए हैं,उनका
क्या ही रोना है
लेकिन निर्दोषों को कब तक अपनी जानें खोना है
आजादी के लिए लड़े जो उनका तो
एक कर्म था
मिलकर था खून बहाया,सबको प्यारा राष्ट्र धर्म था
अमिट शृंखला बलिदानों की, तब थी आजादी पाई
पर आजादी के संग त्रासदी बँटवारे
की आई
कितने बिछड़े, कितने बेघर, जान गँवाई कितनों ने
भाई- भाई अब दुश्मन थे, लूट मचाई
अपनों ने
ऐसा हमें मिला पड़ोसी, जिसे कब सद्भाव सुहाया
जिसकी रगों में रात और दिन, सिर्फ़ दुर्भाव समाया
जिन दरबारों में आतंकी आका बनकर फिरते हैं
अपनी बर्बादी का वे नित खुद शपथ पत्र भरते हैं
फौज जहाँ की हत्यारों को,
अपना शीश झुकाती है
उसकी मंशा क्या होगी, बात समझ खुद
आती है
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सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteअति सुंदर...हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता 💐💐
ReplyDeleteसुंदर रचना सुरंगमा जी!!
ReplyDeleteआदरणीया
ReplyDeleteदेश धर्म के मर्म पर अद्भुत भावों का समायोजन। हार्दिक बधाई। सादर
- अम्बर से भी ऊँची उड़ान रखते हैं,
- हम अपने दिल में हिंदुस्तान रखते हैं
बहुत ही सुंदर एवं सटीक भाव लिए हुए कविता सुरंगमा जी! बहुत ख़ूब!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित