लौट आओ
- सुशीला शील
स्वयंसिद्धा
त्योहारों की रौनको
लौट आओ !
कितनी सूनी है मन की
गलियाँ
बरसों से नहीं चखी
लोकगीतों की मिठास
सूनी सी आँखें
पलक -पावड़े बिछाए हैं
कभी तो दिखेंगी
हँसती-गाती-नाचती-हुलसती
हुड़दंग करती बच्चों की टोलियाँ
यादों में तैर-तैर जाते
हैं दूल्हा- भट्टी
जीभ पर अनायास
आ विराजती है गुड़ की
पट्टी
संग चली आती हैं
गज्जक-रेवड़ियाँ
टप्पे-बोलियाँ
सुंदर मुंदरिये संग
झूमते टीके-बालियाँ
थिरकती पायल
खनकती चूड़ियाँ
मचलते परांदे
हँसती फुलकारियाँ
चहक उठती हैं
नचदी कुड़ियाँ -
सानू दे दे लोहड़ी
तेरी जीवै जोड़ी
लोहड़ी की आग और
रेवड़ियों से
बिछड़ गए हैं उपले
चली आई हैं थोक में
लकड़ियाँ
कहाँ दे पाती हैं उपले
जैसी
धीमी आँच और तपन
जिनको थापते-सुखाते
होते थे स्नेहिल जतन
महीनों के त्योहार
सिमट गए हैं चंद घंटों में
खो गए हैं चूल्हे-भट्टी
कड़ाहियों में पकती गजक-पट्टी
माँ के हाथों की मिठास
दुकानों के सौदों में खो गई है
तरक़्क़ी करते-करते
जिंदगी कितनी फ़ीकी हो गई है
त्योहारों की रौनको
ओ ढोल ओ ताशो !
ओ उत्साह ओ उल्लास
ओ तन मन का हुलास
लौट आओ !
लौट आओ ! !
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ओ उत्साह ओ उल्लास
ReplyDeleteओ तन मन का हुलास
लौट आओ !
लौट आओ ! !
सुन्दर आह्वान ! लोहड़ी की हार्दिक शुभकामनाएं !!
कविता पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ऋतु जी 🙏
Deleteतरक्की करते करते जिंदगी कितनी फीकी हो गई है.. वर्तमान में खोते जा रहे उल्लास की चिंता के बीच लोहड़ी पर्व के माध्यम से लोक संस्कृति की मिठास को अभिव्यक्त करती सुन्दर रचना। हार्दिक बधाई।
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Deleteमेरी रचना को अपना समय, स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार आदरणीय 🙏
Deleteआपकी कविता ने त्योहार की चमक और खनक याद दिला दी।आज की भागम भाग वाली जिंदगी में त्योहार फीके पड़ते जा रहें हैं। अच्छी कविता की बधाई
ReplyDeleteआपको कविता पसंद आई आपने इसकी प्रशंसा की आपका बहुत-बहुत धन्यवाद🙏
Deleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया के नीचे अपना नाम भी लिखा कीजिए। Anonymous से पता नहीं चला किसने टिप्पणी की है। सादर
उन्नति की चमक के बीच त्योहार और ख़ुशियाँ सिमट गई हैं। लगता है अपना अस्तित्व ही खो रही है। वाली पीढ़ियाँ इनका महत्व क्या जानेगी। आपकी कविता हमारी संस्कृति की महक को बनाए रखने में सहायक होगी ।बधाई ।सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteआपने इस कविता पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली, इसको सराहा आपका हार्दिक आभार आदरणीय दी 🌹🙏
Deleteलोहड़ी के पर्व की खुशियों में बसी कविता है हार्दिक बधाई और सभी को इस पावन पर्व की शुभकामनाएँ ।सविता अग्रवाल “सवि “
ReplyDeleteत्योहार तो वही है, बाज़ारीकरण के कारण मनाने का तरीक़ा बदल गया है. बहुत सुन्दरता से आपने अतीत की बातें याद दिलाईं. बधाई सुशीला जी .
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण कविता।
Deleteहार्दिक बधाई 💐🌷
सादर
बहुत सुन्दर अभिव्यक्त... हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह सुन्दर आह्वान!!🙏संस्कृति बनाये रखना हमारा कर्तव्य है 🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकाश! वो दिन लौट आते... अब तो हम बस रस्म निभाते हैं, पहले सा उत्साह-उल्लास जाने कहाँ खो गया। इस सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई।
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