पथ के साथी

Saturday, January 11, 2025

1444-मैं चला जाऊँगा

  रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

मैं चला जाऊँगा

बहुत दूर

चाँद और सूरज से परे

अब लौट न पाऊँगा।

फिर भी

कभी हवा बनके

कुछ खुशबू ,

तुम्हारे आँगन में

बिखरा जाऊँगा।

 

ताप जब तुम्हें सताए

मैं बनके बदरा

बरस जाऊँगा,

पर मैं लौट न पाऊँगा।

 

शर्तों में नहीं जिया;

इसलिए

केवल विष ही पिया

सुकर्म भूल गए सब

दूसरों के पापों का बोझ

मैंने अपने ऊपर लिया

जी-जीके मरा

मर-मरके जिया।

 

ऐसा भी होता है

जीवन कि

मरुभूमि में चलते रहो

निन्दा की धूल के

थपेड़े खाकर

जलते रहो ।

जिनसे मिली छाँव

वे गाछ ही  छाँट दिए

जिन हाथों ने दिया सहारा

वे काट दिए

ऐसे में मैं कैसे आऊँगा ?

कण्ठ है अवरुद्ध                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

गीत कैसे गाऊँगा ?

मैंने  किया भी क्या ?

जो दुःखी थे

उनको और दुःख दिया

मेरे कारण औरों ने भी

ज़हर ही पिया

सबका शुक्रिया!

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  2. बहुत सुंदर कविता।बधाई आदरणीय।

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  3. रो पड़े नैन, अति मार्मिक

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  4. अत्यंत मर्मस्पर्शी सुंदर कविता।आप हमारे प्रेरणास्रोत हैं। पर आपके स्वरों में समर्पण के साथ नैराश्य भाव पीड़ा देते हैं।उत्कृष्ट सृजन के लिए हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

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  5. करुण रस से ओतप्रोत मार्मिक कविता, वेदना के मध्य उदात्त वृत्ति कविता के साथ चलती है, चाँद और सूरज से दूर जाने के बाद भी आत्मीय जनों के ऊपर कभी खुश्बू बनकर बिखरने का भाव, कभी बादल बनकर बरसने के भाव में परोपकार और प्रेम का सात्विक भाव है। उत्कृष्ट कविता हेतु आपकी लेखनी को नमन --शिवजी श्रीवास्तव

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  6. अत्यंत मर्म स्पर्शी रचना। आपने तो अमृत बाँटा है भैया। जीवन भर विद्या का दान दिया है, सबसे बड़ा दान फिर साहित्य की अलख जगाई। कितने ही रचनाकारों को पहचान दिलाई।
    कितने सुख, कितनी खुशियाँ बाँटी।
    आप तो अंधेरों में उजाले भरते हैं फिर निराशा के ये भाव क्यों?
    कविता सीधे दिल में उतर गई भैया। शब्द शब्द मर्म को छूता हुआ।
    आप हमारे प्रेरणा का सूर्य है, आपको निराशा के अंधेरे ग्रसित नहीं कर सकते 🙏
    आपकी अनुजा
    सुशीला शील स्वयंसिद्धा

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  7. आप सबका बहुत आभार। मैं ईश्वरवादी हूँ, निराशावादी बिल्कुल नहीं। यह क्षणिक दु;ख है, जो बहुत पहले मई 2024 में छलक आया था। इसे अभी तक कहीं नहीं भेजा था; क्योंकि मैं देर तक इसे स्थायी भाव की तरह नहीं ले सकता। मैं सबके साथ हूँ। जो स्वार्थवश छोड़ गए, उनसे भी कोई शिकायत नहीं। मैंने उन लोगों को एक भी कटु शब्द नहीं कहा। बस छोड़ दिया और चुप्पी साध ली। मेरा विश्वास है कि जो बने अच्छा करते चलो। इस धारणा को भूल जाएँ कि सभी अच्छे कार्यों का फल अच्छा होता है। जिसकी जैसी प्रवृत्ति होगी , वह वैसा ही व्यवहार करेगा। बस हम कोशिश करें कि हम कुछ ऐसा न करें कि किसी का दिल दुखे। मेरा एक हास्य वाक्य है-नेकी कर दरिया में डाल और फिर खुद भी दरिया में कूद जा, ताकि नेकी करने का पछतावा न हो। दरिया में कूदना आत्महत्या नहीं; बल्कि जो किया है, उसे भूल जाना है।

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  8. बहुत प्यारी रचना। मन को छू लेने वाली। आप तो कहीं नहीं जा सकते पर। रहना ही होगा सदा यहीं और इसी तरह समाज का विष दूर करते रहना होगा। लिखते रहनी होंगी ऐसी ही सुन्दर और मार्मिक रचनाएं। बहुत बधाई आपको आदरणीय। 💐💐

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  9. अप्रतिम
    मनभावन
    मर्म को परे रख कर देखें
    काम्बोज जी के साहस को नमन
    वंदन

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  10. भाई कांबोज जी बहुत गहरे ह्रदय के तारों को झनझनाती हुई कविता है । बहुत से मन में चुभे शूल भी हैं साथ ही सकारात्मक सोच को पूर्ण करती कविता है । हार्दिक बधाई । सविता अग्रवाल “सवि”

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  11. भइया, आपके मन के भाव में हम सभी की भावनाएँ समाहित हैं, जो हम कह नहीं पाते. जीवन में यह सभी के साथ घटित होता है और मन चाहता है कि वहाँ जाऊँ जहाँ से लौट न पाऊँ. पर कुछ अपनों का प्रेम जाने नहीं देता. यही जीवन है, जैसा है उसी में हँसकर जीना है. जिसने मन को चोट पहुँचाया उनसे दूरी, जो अपने हैं उनसे अपनापन. सहज-सरल राह यही है. इतने गहन भाव को सुन्दर शब्द देने के लिए बधाई.

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  12. हृदय की पीड़ा उकेरती अत्यंत मर्मस्पर्शी कविता। आपका हृदय कितना विशाल और उदार है यह बात किसी परिचय की मोहताज नहीं! आशा और सकारात्मकता की लौ जलाए रखिए आदरणीय हम सब आपके साथ हैं।

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  13. दर्द भीगी अत्यंत मर्मस्पर्शी उत्कृष्ट रचना।

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  14. ओह कितनी सच्चाई से आपने अपनी ह्रदय व्यथा लिखी!!हम सब कभी न कभी ऐसा सोचते ही हैं जब परिस्थितियाँ अपने मुताबिक न हों |परिस्थितियों से जूझना ही हमारा कर्तव्य है भैया |आपको ह्रदय से प्रणाम!!लिखते रहें तथा हमारा मार्गदर्शण करते रहें!!🙏

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  15. बहुत ही भावपूर्ण कविता।
    गुरुवर,
    आपकी लेखनी को नमन जिसने सदैव दूसरों के सुख की कामना की। आपकी हर रचना साहित्य की अनमोल निधि है, जो लोक मंगल के भाव से भरी है। आप हम सबकी प्रेरणा हैं। जीवन को जीना हमने आपसे सीखा है।
    प्रणाम आपको🙏

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  16. आप सभी की आत्मीयता अनुपम है। सभी के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ।

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