सिलसिला
डॉ. सुरंगमा
यादव
मुझे अकेला पाकर
अकसर
तुम आ जाते हो
मेरे पास
फिर शुरू होता है
तुम्हारी बातों से निकलती
बातों का सिलसिला
भाने लगता है मुझे
ये अकेलापन
पहले भी नहीं
और अब भी नहीं
ऊबती ही नहीं
डूबती ही जाती हूँ
तुम्हारी बातों की गहराई में
ढूँढ लाती हूँ कई मनके
दुनिया से छुपके
सहसा चौक जाती हूँ !
किसी के पुकारने पर
गड्ड-मड्ड हो जाता है
मन की झील में उभरा हुआ
तुम्हारा अक्स
फिर शुरू होता है
तुम्हें सोचने का सिलसिला।
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सुंदर भावाभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, हार्दिक शुभकामनाऍं ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
Deleteहार्दिक बधाई आदरणीया
सादर
सुंदर अभिव्यक्ति सुरंगमा जी। हार्दिक बधाई। सविता अग्रवाल “ सवि”
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी।
ReplyDeleteसुंदर कविता!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
बहुत सुन्दर रचना
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