1-तुम्हें पता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'
तुम्हें पता है? ये जो
तारे हैं ना
ये अंबर की
हथेली की लकीरों पर उगे
चेतना के वृक्ष के फूल हैं
झरते फूलों का
सात्विक रूप है काया।
प्रकृति के
गर्भ में अठखेलियाँ करते भाव
जन्म नहीं लेते, गर्भ
बदलते हैं
जैसे गर्भ बदलता है प्राणी
सागर में तिरते चाँद का प्रतिबिंब
बुलावा भेजता है इन्हें।
तभी, तुम्हें बार-बार
कहती हूँ
निर्विचार आत्मा पर जीत हासिल नहीं की जाती
उसे पढ़ा जाता है
जैसे-
पढ़ती हैं मछलियाँ चाँद को
और चाँद पढ़ता है, लहरों को।
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2-बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं।
-प्रणति
ठाकुर
हूँ तुम्हारी हमनफ़स, हमराज़ हूँ मैं,
अनकही और अनसुनी आवाज़ हूँ मैं,
ख़ून -ए- दिल से खुद -ब-खुद शादाब हूँ
मैं
बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं ।
हूँ सरापा नज़्म -ए-रुसवाई मैं तो,
हूँ ख़यालों में क़फ़स तन्हाई मैं तो,
इन्तहा -ए-हिज़्र का आदाब हूँ मैं
बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं।
रोक ले मुझको कि मैं गिरने न पाऊँ,
गिर हक़ीक़ी हर्फ़ से मिलने न पाऊँ,
ख्वाहिशों के चश्म का बस आब हूँ मैं
बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं।
रख मुझे, मैं मुफ्लिसी -ए-इश्क की ज़िन्दा इबारत,
चंद रातों में न बुझ जाऊँ,हूँ जुगनू की हरारत,
आसमाँ तू है नहीं फिर कैसे आफ़ताब हूँ मैं
बंद
आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं।
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सुन्दर रचनाएँ
ReplyDeleteसादर
सुरभि डागर
जी धन्यवाद
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ReplyDelete"तुम्हें पता है? ये जो तारे हैं ना
ये अंबर की
हथेली की लकीरों पर उगे
चेतना के वृक्ष के फूल हैं"
लाजवाब, शानदार रूपक मन मोहता हुआ। अति सुंदर रचना। बधाई अनिता जी 💐
हार्दिक धन्यवाद आपका।
Delete"मैं मुफ्लिसी -ए-इश्क की ज़िन्दा इबारत,
ReplyDeleteचंद रातों में न बुझ जाऊँ,हूँ जुगनू की हरारत,
आसमाँ तू है नहीं फिर कैसे आफ़ताब हूँ मैं"
मर्म को छूती हुई बहुत ही ख़ूबसूरत पंक्तियाँ। बधाई प्रणति जी 💐
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआभार आपका आदरणीय
ReplyDeleteहार्दिक आभार भाई सहज साहित्य के मंच पर स्थान देने हेतु।
ReplyDeleteप्रिय प्रणति जी की बहुत सुंदर रचना है।
सादर नमस्कार।
बहुत सुंदर
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