जलीय भाव मन के
अनिमा दास
स्वार्थ की अग्नि में जल गया नभांचल
उर्वि हुई शुष्क.. मन-कूप हुआ मरुथल
पल्लवों का क्रंदन..पुष्पों का हृद-मंथन
केवल अश्रु में है आर्द्रता..जग वह्नि-वन।
आ! दे जा जल,भर दे आ,सर- सरिता
सजीव के अधरों में खिल जाए स्मिता
यह तपन...लोभ की यह असह्य क्रीड़ा
नित्य विष -सी घुल जाती
असंख्य पीड़ा।
जिसे कहा जीवन.. उसे किया नाशित
जिसे कहा अमृत.. उसे किया दूषित
रे, मानव! क्या सृष्ट कर पाएगा सागर?
क्या तुझसे जन्म ले पाएगा एक अंबर ?
त्रास मेरा हो रहा...दिगंतर में घनीभूत
बन जल-धारा बरसेगी..व्यथा अनाहूत।
-0-कटक, ओड़िशा
बेहतरीन साॅनेट, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteजी सादर धन्यवाद आदरणीय 🙏🌹
Deleteबहुत बढ़िया सृजन किया आपने , शुभकामनाएं
ReplyDeleteसादर
सुरभि डागर
जी सादर धन्यवाद आदरणीया 🙏🌹
Deleteसुंदर सृजन!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
जी सादर धन्यवाद आदरणीया 🙏🌹
Deleteबहुत सुंदर!! बधाई अनिमा जी।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आदरणीया 🌹🙏
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया
सादर