डॉ. सुरंगमा यादव
तुम न होतीं तो मेरे लिए
करवाचौथ व्रत रखता कौन
तुम न होतीं तो मेरे अँगना
चूड़ी- पायल खनकाता कौन
तुम न होतीं तो मेरे जीवन का
एकाकीपन भरता कौन
तुम न होतीं तो आलता लगाकर
मेरा आँन रंग जाता कौन
तुम न होतीं तो घर के दर्पण पर
माथे की बिंदिया चिपकाता कौन
तुम न होतीं तो नित फरमाइश कर
मान- मनौव्वल करता कौन
तुम न होतीं तो बिखरे रिश्तों को
सीता और पिरोता कौन
तुम न होतीं तो जीवनभर
सुख- दु:ख में साथ निभाता कौन
तुम न होतीं तो व्याकुल मन की
बिन बोले पीड़ा पढ़ लेता कौन
मैं कहूँ भले ही न मुख से
तुम मेरे मन का हो संबल
ये
हृदय जानता है मेरा
मुझको तुमसे है कितना बल
तुम से ही मान बढ़ा मेरा
तुमने परमेश्वर माना है
तुम अगर न होगी पास मेरे
घर क्या मन भी उजाड़ हो जाना है
तुमको खोने से डरता हूँ
व्रत भले नहीं मैं रख पाता
पर कुशल कामना करता हूँ
तुम जीवन रण में ढाल मेरी
निरंकुश मन का अंकुश हो
शब्दों में अधिक नहीं कह पाता हूँ
पर सच है तुम मेरा सब कुछ हो ।
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बहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया।
सादर
सुन्दर रचना
ReplyDeleteसमर्पित सुन्दर कविता । बधाई सुरंगमा यादव जी ।
ReplyDeleteभावपूर्ण सूंदर अभिव्यक्ति सुरँगमा जी!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत रचना!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
स्त्री मन को तो संवेदना के स्तर पर अक्सर छुआ जाता है, पर इस तरह पुरुष मन के भावों की अभिव्यक्ति बहुत पसंद आई, ढेरों बधाई
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