रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-हरियाली के गीत
(30-05-1999 -आकाशवाणी-अम्बिकापुर-06-06-99, कलमकौशल–जून-2001)
हरियाली के गीत
छाया; रोहित काम्बोज |
मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के ।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछताओगे ;
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे ?
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे ?
कहाँ से पाओगे फिर फल?
कहाँ से मिलेगा ?
सस्य श्यामला को
सींचने वाला जल ?
रेगिस्तानों में
तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से
उमड़-घुमड़कर बादल ?
थके हुए मुसाफ़िर
पाएँगे कहाँ से
श्रमहारी छाया ?
पेड़ों की हत्या करने से
हरियाली के दुश्मनों को
कब सुख मिल पाया ?
यदि चाहते हो –
आसमान से कम बरसे आग
अधिक बरसें बादल ,
खेत न बनें मरुस्थल,
ढकना होगा वसुधा का तन
तभी कम होगी
गाँव –नगर की तपन
।
उगाने होंगे अनगिन पेड़
बचाने होंगे
दिन- रात कटते हरे- भरे वन ।
तभी हर डाल फूलों से महकेगी
फलों से लदकर
नववधू की गर्दन की तरह
झुक जाएगी
नदियाँ खेतों को सींचेंगी
सोना बरसाएँगी
दाना चुगन की होड़ में
चिरैया चहकेगी
अम्बर में उड़कर
हरियाली के गीत गाएगी
-0-
2-आग
(20/10/1990- आकाशवाणी
अम्बिकापुर-31-7-1998)
मत जलाओ
इस शाखा को
हम बैठगे भला कहाँ पर
जब लौटेंगे रोज़ सफ़र से
नीड़ कहाँ पर होगा अपना
झूलेगा फिर
सुबह-शाम को
कलरव कैसे
जले ठूँठ पर ।
कैसे
खेलेंगे
आँख
मिचौनी
नन्हे
बच्चे
अपत डार पर
गाएँगे जब हम
कैसे होगी संझा -बाती
और करेगा कौन आरती
धूप जलाकर,
बजाकर
जब
हम साधेंगे
चुप्पी
कौन जाएगा
नदी नहाने
कौन पुकारेगा
सूरज को
भरे गले से
भीगे स्वर
में
जागेंगी फिर
कहाँ ॠचाएँ
हर अन्तर
में ।
मत जलाओ
इस शाखा को
क्योंकि,
क्या बचेगा
इसके यूँ जल जाने पर-
न नीड़
न आँख-मिचौली
न आरती
न यह सूरज
और न गीली ॠचाएँ।
-0-
3- परहेज़
प्रीति अग्रवाल
प्रीति अग्रवाल
परहेज़ तो पहले भी
करते थे लोग
कभी जात के नाम पर
कभी प्रांत के नाम पर
कभी रूप रंग, तो कभी
धन-मान के नाम पर!
सोचती हूँ-
जो हुआ, अच्छा तो नहीं हुआ,
पर भेद-भाव मिटे
सब बराबर हो गए
परहेज़ सार्वजनिक
कानूनन हो गया!!
-0-
मत काटो तुम ये पेड़
ReplyDeleteहैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के कितनी सुंदर बात। और मानव अपनी नासमझी से प्रकृति के साथ कैसा कैसा खिलवाड करता है , वह स्वयं भी नहीं जानता ।समसामयिक सुंदर कविताएँ ।कितनी पहले की पर आज भी प्रासंगिक हैं। बहुत बहुत बधाई भैया।आपकी लेखनी को नमन।
गीत हरियाली के, मत जलाओ शाखाओं को,,,,, पर्यावरण दिवस पर बहुत सुंदर रचनाएं, आदरणीय भाई साहब जी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं,नमन। प्रीति अग्रवालजी को सुंदर समसामयिक रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteप्रीति जी,बहुत सुंदर समसामयिक कविता । बधाई आपको
ReplyDelete1000वीं पोस्ट की बधाई हो।
ReplyDeleteसार्थक एवं सारगर्भित अभिव्यक्तियाँ।
पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सुन्दर सामयिक अभिव्यक्तियाँ। आप दोनों को हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteआदरणीय भाई साहब, दोनों ही रचनाएँ भावपूर्ण और सार्थक, काश की हम पहले ही चेत जाते तो शायद यह नौबत नहीं आती!!आपको हार्दिक बधाई और मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार!
ReplyDeleteसभी रचनाएँ प्रभावित करती हैं.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रभावशाली रचनाएँ 👌👌👌 इंसान पहले ही चेत लेता तो आज ये आपदाएं न आती... विकास के साथ साथ प्रकृति से सानिध्य बनाना भी बहुत आवश्यक है... वरना पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा.. 1000 वीं पोस्ट के लिए ढेरों बधाइयाँ.. 🎉🎉
ReplyDeleteओ चित्रकार... पढ़ने के लिए आप आमंत्रित हैं 🙏🙏
सुंदर भावपूर्ण सामयिक रचनाएँ ... भाई काम्बोज जी, प्रीति जी को बहुत बधाई।
ReplyDeleteभाई काम्बोज जी हरियाली के गीत और मत जलाओ इस शाख को बहुत सुन्दर सन्देश देती कवितायें हैं |प्रीति जी की भी कविता समसामयिक है आप दोनों को हार्दिक बधाई |
ReplyDelete1000वीं पोस्ट की बधाई । नया पढ़ने को मिला - श्रम हारी छाया , नववधू के गर्दन सी झुकी फलों की डालियाँ - सुंदर दृश्य है । विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर सामयिक रचनाएँ - आप दोनों को बधाई ।
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार!!
ReplyDeleteहरियाली के गीत, आग संदेशप्रद कविता...परहेज समसामयिक सुंदर रचना|
ReplyDeleteसभी को बधाइयाँ !!
बिलकुल सही कहा सर आपने -
ReplyDeleteअशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछताओगे ;
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे ?
सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक
प्रीति जी की रचना आज के सच को बयाँ करती |
आप दोनों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ
कितनी गहन अनुभूति की रचनाएँ हैं. एक एक शब्द गहरे अर्थ लिए हुए ...
ReplyDeleteमत जलाओ
इस शाखा को
हम बैठगे भला कहाँ पर
जब लौटेंगे रोज़ सफ़र से
नीड़ कहाँ पर होगा अपना
झूलेगा फिर
सुबह-शाम को
कलरव कैसे
जले ठूँठ पर ।
अनुभूतिपरक रचनाओं के लिए बहुत बधाई काम्बोज भाई.
प्रीति जी को सुन्दर रचना के लिए बधाई.
सार्थक, मर्मस्पर्शी, सुंदर कविताएं। बधाई हिमांशु जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर,प्रभावी तथा भावपूर्ण रचनाएँ ...आद.भैया जी एवँ प्रीति जी को हार्दिक बधाई!!
ReplyDeleteइंसान अगर यही समझ लेता कि प्रकृति का संरक्षण करना खुद उसके लिए कितना ज़रूरी है तो फिर रोना ही क्या होता...| प्रीति जी की रचना भी बहुत मर्मस्पर्शी है |
ReplyDeleteआदरणीय काम्बोज जी और प्रीति जी को बहुत बधाई...|