कमला निखुर्पा
कंक्रीट के जंगल में रहकर
आखिर सभ्य हो गए हैं हम।
काटे
पेड़ पगडंडी तोड़ी
धुँआ उगलती चिमनी जोड़ी ।
खाँस-खाँसकर हुए बेदम
कितने सभ्य हुए हैं हम ।
बेघर हुए वनचर-वनवासी
हरे-भरे वन हुए हैं ग़ुम।
गमलों में कैक्टस उगाए
प्रकृति प्रेम का भरते दम
बहुत सभ्य हुए हैं हम।
नाला बन नदियाँ भी रो लीं
कल-कल कर बहना भी भूली ।
मैला आँचल माँ का करके
बच्चे विकास के पथ पे चलते ।
पीछे छोड़ गए क्या भरम
बहुत सभ्य हो गए हैं हम ।
ताल-तलैया औ झील सुखानी ।
प्यास बुझाए बोतल बंद पानी ।
फिर भी प्यास गर बुझ ना पाई
अब ज़हर मिला जल पिएँगे हम ?
क्या इतने सभ्य बनेंगे हम ?
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बहुत ही सार्थक और बेहतरीन रचना कमला जी
ReplyDeleteबधाई
बहुत ही सार्थक और बेहतरीन रचना कमला जी
ReplyDeleteबधाई
वर्तमान की कटु सच्चाई को रेखांकित करती बहुत अच्छी कविता
ReplyDeleteसुन्दर ,सामयिक रचना ..हार्दिक बधाई कमला जी !
ReplyDeleteकमला जी, आज के सच्च को उकेरती रचना | बधाई |
ReplyDeleteशशि पाधा
बहुत ख़ूब और सत्य रचना
ReplyDeleteसभ्यता के नाम पर विनाश का यथार्थ चित्रण ।
ReplyDeleteबधाई !!
उम्दाभिव्यक्ति!!कमला जी
ReplyDeleteकमला जी सामयिक रचना ने मन मोह लिया |यही तो सत्य है आज |हार्दिक बधाई आपके लेखन को |
ReplyDeleteअच्छी सुन्दर कविता। सुरेन्द्र वर्मा ।
ReplyDeleteवाह, बधाई कमला जी
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता । यथार्थ का चित्रण करती सार्थक रचना के लिये बधाई कमला जी ।
ReplyDeleteसार्थक ,सामयिक रचना कमला जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना कमला जी बधाई।
ReplyDeleteहरे भरे जंगल उझाड़ कंक्रीट के जंगल में रहने वालो का कड़वा सच जो अपने को सभ्य कहलाने का दम भरते हैं । बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया कविता में कमला जी । बधाई ।
ReplyDeleteसभी विद्वान मित्रों का हृदय से आभार । आदरणीय काम्बोज भाई साहब को नमन जिनसे प्रेरणा पाकर लिखने का साहस जुटा पाती हूँ ।
ReplyDeleteBhavpurn rachna,meri hardik badhai.
ReplyDeleteबेहद सार्थक और सामयिक रचना, बधाई कमला जी.
ReplyDeleteकटु यथार्थ को उजागर करती सुंदर सामायिक रचना हेतु बधाई आपको कमला जी ।
ReplyDeleteजीवन के कटु सत्य को लक्षित करती...एक सार्थक कटाक्ष करती इस बेहतरीन रचना के लिए बहुत बधाई...|
ReplyDeletenice post again
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