मंजु मिश्रा
बंद कर दो
खिड़की दरवाजे
इन हवाओं में दम घुटता है ....
गए वो दिन
जब महका करती थीं
यहाँ फूलों की वादियाँ
अब तो बस हर ओर से
आती है एक ही गंध
बारूद की .......
गए वो दिन
जब होती थीं रंगों की बहारें
यहाँ के चप्पे-चप्पे पे
अब तो खून टपकता है
यहाँ कलियों से ......
गए वो दिन
जब गूँजते
थे जर्रे-जर्रे से
मुहब्बत के तराने
अब तो बस आती हैं
मारो-मारो की आवाजें
यहाँ की गलियों से
गए वो दिन जब कश्मीर
हुआ करता था स्वर्ग धरती का
होते थे हरसूं प्यार के मंजर
अब तो कश्मीर को
कश्मीर कहने में भी
डर लगता है ......
बंद कर दो
खिड़की दरवाजे
इन हवाओं में दम घुटता है ....
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सच के साथ सार्थक लेखन
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा...दम घुटने जैसा ही माहौल है...
ReplyDeleteगए वो दिन
जब होती थीं रंगों की बहारें
यहाँ के चप्पे-चप्पे पे
अब तो खून टपकता है
यहाँ कलियों से ......
बहुत सही कहा आज यही माहौल है..
ReplyDelete"बंद कर दो/खिड़की दरवाजे/इन हवाओं में दम घुटता है "....कश्मीर के मौजूदा हालात से उपजी पीड़ा सहजता से उभरी और कविता बन गयी ! लेकिन आपका सृजन स्थिति को बेहतर बनाने में मददगार हो, इस कामना के साथ मंजु मिश्रा जी आपको इस पीड़ा के सही शब्द चित्रण के लिए हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteक्या से क्या हो गया कश्मीर
ReplyDeleteबहुत सामयिक, सशक्त प्रस्तुति ..
ReplyDeleteसभी आदरणीय पाठकों को सार्थक टिप्पणियों हेतु धन्यवाद !
ReplyDeleteबचपन में पढ़ा था स्कूल की किताब में कश्मीर के लिए की यदि धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है …. आज जब भी इस धरती के स्वर्ग की दुर्दशा के बारे में सुनती हूँ/पढ़ती हूँ तो मन को बहुत कष्ट होता है …
सादर
मंजु
samakasara dard bhavon mein vyakt karati kavita haibadhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
सच का साक्षत्कार , सशक्त रचना .
ReplyDeleteबधाई .
सच को बयान करती और बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती एक मर्मस्पर्शी कविता...हार्दिक बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका गुप्ता