पथ के साथी

Friday, August 2, 2013

हाँ,इन्कार है मुझे !


सुशीला श्योराण

मैंने -
तुम्हारी दुनिया में
आ खोलीं आँखें
कितनी जोड़ी
हुईं निराश आँखें ।

कैसे कह देती है
कुहुकती कोयल को
बोझ ये दुनिया
रुनझुन उठते कदमों से
कैसे उगती हैं चिंताएँ
हर इंच बढ़ते कद के साथ
क्यों झुक जाते हैं पिता के कंधे
देहरी से बाहर निकलते ही
क्यों डर उठा लेते हैं सर
हर उन्मुक्त हँसी के साथ
पहरेदार हो जाती हैं निगाहें
बढ़ते हौसलों के साथ
बढ़ जाती है अपनों की फ़िक्र
हर उपलब्धि पर
पिता की पेशानी पर
बढ़ जाती हैं चिंता की रेखाएँ
उपयुक्त वर की तलाश की ।

और एक दिन -
कर देते हैं दान
अपनी खुशियाँ
अपना गुमान
रख देते हैं गिरवी
अपनी आन
विदाई के साथ ही
मन में कर लेती हैं घर
कितनी ही आशंकाएँ
हो जाते हैं याचक
समर्थ, गर्वित पिता
देके जिगर का टुकड़ा
हो जाते कितने  गरीब !

मेरा मन
हो उठा है विद्रोही
नहीं स्वीकार इसे
दानी पिता की दीनता
नहीं स्वीकार
संस्कृति के नाम पर
सदियों की कुरीतियाँ
जो एक बेटी को
नहीं मानती इंसान
कर देती हैं दान
ज़मीन के टुकड़े की तरह
कर देती हैं मुकर्रर
एक इंसान का मालिक
दूसरे इंसान को
इस स्वामित्व से
जायदाद होने से
हाँ,
इन्कार है मुझे !
 मैं कोई मकान
न ज़मीन का टुकड़ा
न कोई वस्तु
न नोटों की गड्डी
कि हो जाऊँ दान
या बेच दी जाऊँ

मैं एक जागरूक 
जीती जागती इंसान
परंपरा के नाम पर
जायदाद

गुलाम होने से
हाँ,
इन्कार है मुझे ।
-0-



15 comments:

  1. नारी सशक्तिकरण का संदेश देती सशक्त रचना .

    बधाई .

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  2. आपने जिस सहजता से बेटियों साथ होने वाले अन्याय को इस कविता "हाँ,इन्कार है मुझे!" में व्यक्त किया है, उसके लिए एक सूक्ष्म और व्यापक सोच की जरूरत होती है। सुशीला जी , आपकी यह संवेदनशीलता बेटियों को वह मुखरता देने में कामयाब हो जिसकी उन्हें जरूरत है - यही कामना और प्रार्थना है !

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  3. बहुत ही मार्मिक रचना ,प्रशन उठती हुई ,ललकारती हुई समाज को और उसकी टूटी फूटी ,सडी गली मान्यताओं को। बधाई सुशीला जी की

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  4. सार्थक एवं सशक्त रचना. जन्म से ही स्त्री पर किसी न किसी का मालिकाना रहता है. इन मालिकों से इनका मालिकाना छीनना कठिन है पर नामुमकिन नहीं. बस विद्रोह कर ही देना है, भले वो मालिक जन्मदाता ही क्यों न हो. अब और गुलामी नहीं... आह्वाहन करती रचना के लिए हार्दिक बधाई.

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  5. एक कड़वी सच्चाई को उजागर करती सशक्त रचना ....
    आपके होंसलें और ज़ज़्बे को प्रणाम ....
    खुश रहें,स्वस्थ रहें !

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  6. हार्दिक आभार जेन्नी जी । बदलाव तो लाना ही होगा । किसी को तो शुरुआत करनी होगी । मैंने कोशिश की है नारी-सम्मान की अलख जगाने की ।

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  7. गुलाम होने से इनकार करना जरुरी है !

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  8. प्रश्न उठाती हुई बहुत ही मार्मिक रचना .

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  9. बहुत सार्थक और सशक्त प्रस्तुति...

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  10. संदेशवाहक एक ज़ोरदार रचना...हार्दिक बधाई!

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  11. बहुत सुन्दर और सशक्त रचना....

    सादर
    अनु

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  12. तार्किकता और बौद्धिकता से भरी प्रभावी रचना।

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  13. बहुत सुन्दर...दिल को छू लेने वाली एक सशक्त-सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई...|
    न मैं कोई मकान
    न ज़मीन का टुकड़ा
    न कोई वस्तु
    न नोटों की गड्‍डी
    कि हो जाऊँ दान
    या बेच दी जाऊँ
    मैं एक जागरूक
    जीती जागती इंसान
    परंपरा के नाम पर
    जायदाद
    गुलाम होने से
    हाँ,
    इन्कार है मुझे ।
    समाज के चुनिन्दा ठेकेदार भले इसे विद्रोह कहें, पर आज की नारी को इस विद्रोही स्वर की बहुत जरुरत है...|

    प्रियंका गुप्ता

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  14. बहुत प्रखर अभिव्यक्ति है ...सामयिक ..सटीक और सारगर्भित प्रस्तुति के लिए बहुत बधाई !

    सादर
    ज्योत्स्ना शर्मा

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  15. wa tera kya khna

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