रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
निर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
खग-मृग भटके ।
2
झीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी ।
घाटी भिगोते
रहे घन जितने
वे परदेस गए
रूठ गए वे
निर्मोही प्रीतम -से
हुए कहीं ओझल ।
4
छाती चूर की
चट्टानों की भी ऐसे
पीड़ा दहल गई ।
विलाप करे
दर-दर जा छाया
गोद हो गई सूनी ।
-0-
बहुत खूब....
ReplyDeleteसार्हक रचनाएँ...
पर्यावरण रक्षा के लिए सचेत करती...
सादर
अनु
waah bahut acche sedoka....mera blog aapke intjaar men ...
ReplyDeleteतपती शिला
ReplyDeleteनिर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
एकदम सच ... कंकरीट के बेलगाम बढ़ते हुये जंगलों ने छीन लिया है प्रकृति का सौंदर्य... जीवन...प्राण-धारा सी जलधारा....
सादर
मंजु
sabhi sedoka bahut sundar .....dil ko ek ek shabdo ne chua bahut gaharai liye huye .badhai himanshu ji
ReplyDeletebahut achcha likha hai ...Himanshu ji ..!!
ReplyDeleteअपने हाथों राह बिछाते निजविनाश की।
ReplyDeleteSabhi sedoka khulkar baaten kar rahe hain...
ReplyDeleteझीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी ।
Bahut pasnd aaya vichaaron ka khulapan,maasum cidiya ke baare men sochkar dil bhar aaya ,bahut samsamyik rachna,shubkamnaye yun hi likhte rahiye...