रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
क्या रूप निराले हैं
वेश धरे उजले
मन इनके काले हैं ।
2
उपदेश सुनाते हैं
खुद दुष्कर्म करें
जग को बहकाते हैं ।
3
जनता बेहाल हुई
गुण्डों की टोली
अब मालामाल हुई ।
4
पर निश-दिन कतरे हैं
सच्चे लोग यहाँ
लगते अब खतरे हैं ।
5
अब तक दु:ख झेला है
छोड़ नहीं जाना
मन निपट अकेला है ।
6
यूँ मीत अनेक रहे
मन को जो समझे
बस तुम ही एक रहे ।
7
हम याद न आएँगे
जिस दिन खोजोगे
फिर मिल ना पाएँगे ।
8
तुम हमसे दूर हुए
जितने सपने थे
सब चकनाचूर हुए ।
9
उनको सन्ताप हुआ
अनजाने हमसे
लगता था पाप हुआ ।
-0-
रांझा या हीर कहाँ
ReplyDeleteआखर बरस गई
इस जग की पीर यहाँ ....कवि मन की ही नहीं आसपास के परिवेश की,समाज की भी व्यथा को अभिव्यक्त करते सुन्दर माहिया प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत बधाई आपको ...!!
सादर ज्योत्स्ना शर्मा
सुंदरता से अभिव्यक्त किया है ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
जिया अकेला,
ReplyDeleteइस दुनिया पर,
कहाँ भरोसा हो पाया है।
कहीं भाव-सरिता कल-कल निनाद कर उठी तो कहीं आम हिन्दुस्तानी का आक्रोश उमड़ पड़ा। श्रेष्ठ माहिया के लिए बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बधाई।
ReplyDeleteसादर
बहुत अच्छे माहिया हैं...सादर बधाई!!
ReplyDeleteसभी बहुत उत्कृष्ट हैं और गहरे भाव समाहित है. ए दो ख़ास पसंद आए...
ReplyDeleteअब तक दु:ख झेला है
छोड़ नहीं जाना
मन निपट अकेला है ।
यूँ मीत अनेक रहे
मन को जो समझे
बस तुम ही एक रहे ।
बहुत शुभकामनाएं.
सभी माहिया सर्वोत्तम हैं बधाई .
ReplyDeleteउनको सन्ताप हुआ
ReplyDeleteअनजाने हमसे
लगता था पाप हुआ ।
sneh ki uttam abhivyakti
saader
rachana
Bahut mamrmik,gahan abhivykti,dard men dube baav...bahut2 badhai...
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण माहिया हैं...आभार और बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका