मेरे कुछ हाइकु (10 मार्च 1986 से 12 दिसम्बर 2009)
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
[सन् 1982 के बाद फिर10 मार्च 1986 से फिर मैंने कुछ हाइकु लिखे थे।तब से लेकर इधर -उधर बिखरे कुछ हाइकु प्रस्तुत हैं । विभिन्न स्थानों पर स्थानान्तरण के कारण कुछ डायरियाँ सुरक्षित नहीं रह सकीं। ]
[10 मार्च 1986 ]
1
मेघ बरसे
धरा -गगन एक
प्राण तरसे ।
2
तुम्हारा आना
आलोक के झरने
साथ में लाना ।
3
बसंत आया
धरा का रोम-रोम
जैसे मुस्काया ।
4
बरस बीते
आँसुओं के गागर
कभी न रीते ।
5
मन्द मुस्कान
उजालों ने दे दिया
जीवन -दान ।
6
आए जो आप
जनम-जनम के
मिटे संताप ।
7
कहीं हो नारी
अन्याय के जुए में
सदा से हारी
8
आज का इंसान
न पा सका धरती
न आसमान ।
9
चुप बाँसुरी
स्वर संज्ञाहीन -से
गीत आसुरी ।
1 0
तुम्हारे हाथ
सौंप दिया हमने
साँसों का साथ ।
11
व्याकुल गाँव
व्याकुल होरी के हैं
घायल पाँव ।
12
कर्ज़ का भार
उजड़े हुए खेत
सेठ की मार ।
13
बेटी मुस्काई
बहू बन पहुँची
लाश ही पाई ।
-0-
[ 7जून,1997]
14
दाएँ न बाएँ
खड़े हैं अजगर
किधर जाएँ ।
15
लूट रहे हैं
सब पहरेदार
इस देश को
16
मौत है आई
जीना सिखलाने को
देंगे बधाई ।
17
मैं नहीं हारा
है साथ न सूरज
चाँद न तारा ।
18
साँझ की बेला
पंछी ॠचा सुनाते
मैं हूँ अकेला ।
-0-
[15 नवम्बर,2001]
19
फैली मुस्कान
शिशु की दूधिया या
हुआ विहान ।
20
सर्दी की धूप
उतरी आँगन में
ले शिशु -रूप
21
खिलखिलाई
पहाड़ी नदी-जैसी
मेरी मुनिया ।
22
खुशबू- भरी
हर पगडण्डी -सी
नन्हीं दुनिया ।
-0-
[16 नवम्बर ,2001]
23
तुतली बोली
आरती में किसी ने
मिसरी घोली ।
24
इस धरा का
सर्वोच्च सिंहासन
है बचपन
25
मन्दिर में न
राम बसा है ,बसा
भोले मन में
-0-
[9 अक्तुबर ,2003]
26
साँसों की डोर
जन्म और मरण
इसके छोर ।
27
अँजुरी भर
आशीष तुम्हें दे दूँ
आज के दिन ।
-0-
[13 अक्तुबर ,2003]
28
फैली चाँदनी
धरा से नभ तक
जैसे चादर ।
29
काँपती देह
अभिशाप बुढ़ापा
टूटता नेह ।
30
जनता भेड़ें
जनसेवक -भेड़िए
खड़े बाट में ।
31
काला कम्बल
ओढ़ नाचती देखो
पागल कुर्सी ।
-0-
[20जुलाई ,2008]
32
आपकी बातें
खुशबू के झरने
चाँदनी रातें
33
पहला स्पर्श
रोम -रोम बना है
जल-तरंग
34
आज ये पल
जाह्नवी कल-कल
पावन जल
35
प्यार से भरे
नयन डरे-डरे
सन्ताप हरें
36
भोर-चिरैया
तरु पर चहके
घर महके
-0-
[6 सितम्बर, 2008]
37
बेटी का प्यार-
कभी न सूखे ऐसी -
है रसधार ।
38
मोती –से आँसू
बहकर निकले
दमका रूप ।
39
प्यार का कर्ज़
लगता कम पर
चुकता नहीं ।
40
ये स्कूली बच्चे
बिन परों के पाखी
उड़ते रहें।
41
चरण छूना
नस-नस में जैसे
प्रेम जगाना।
42
धरती जागी
ये अम्बर नहाया
चाँद मुस्काया।
43
चुकाएँ कैसे ?
जो भी तुमने दिया
हमने लिया।
44
प्यारी दुनिया-
अब जाना हमने
इसे सींचना ।
45
पढ़ें पहाड़ा
गाएँ मिलके गीत
सच्चा संगीत । [12 दिसम्बर, 2009]
46
गले मिले थे
सपना टूट गया
आँसू छलके
47
भीगीं पलकें
छूती गोरा मुखड़ा
तेरी अलकें
-0-
जनता भेड़ें
ReplyDeleteजनसेवक -भेड़िए
खड़े बाट में ।
भाई काम्बोज जी, सभी हाईकू पढ़ लिए. बहुत सुन्दर हैं. ऊपर दिए हाईकू में आपने जनसेवकों के बारे में जो कहा इतने अल्प शब्दों में कह पाना बहुत कठिन था. यही उपलब्धी है सभी की .
बधाई,
चन्देल
भाई साहिब किस किस हाईकु की तारीफ करूँ। मुझे लगता है पहली और तीसरी पँक्ति की तुक मिलनी चाहिये। क्या ऐसे ही है? आपके जिन हाईकु मे पहली और तीसरी पँक्ति की तुक मिलती है वो बहुत जच रहे हैं। बधाई इन सुन्दर हाईकु के लिये। मेरी शंका का समाधान करें। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक से बढकर एक हाइकु। बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteबसंत आया
ReplyDeleteधरा का रोम-रोम
जैसे मुस्काया ।
Rameshwar ji
Bikhraaav ke is daur mein ye soch kargar hai, aur bakhoobi saath nibhati hai. Ham sabhi kachi pagdandion se chalkar kahin kisi mod par aate hai jahan pahle se jiyada sankari galiyaan dikhti hai. sahitya ka koi kshitij nahin. aapke prayas aur aage tak jayein isi shubhecha ke saath
har haiku men satik bhawabhiyakti hai.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर हाइकु हैं। हर पंक्ति, भावों की गहराई तक जाकर सुंदर
ReplyDeleteबिम्बचित्र प्रस्तुत कर रही है। 'भोर-चिरैया, तरु पर चहके, घर महके '
भीगीं पलकें, छूती गोरा मुखड़ा, तेरी अलकें,
कितना ही पढ़ें हर बार नयी-नयी सी लगती है।
sunder haaiku
ReplyDeleteरमेश्वर जी 1986 से आज तक कहाँ छुपे रहे मोतियोँ का अनमोल खजाना लिए!
ReplyDeleteसभी हाइकु बहुत ही गहरे भाव लिए हुए है...भावों की गहराई सुंदर
चित्र प्रस्तुत कर रही है।
अँजुरी भर
आशीष तुम्हें दे दूँ
आज के दिन ....कितना सकून मिलता है यह पढ्कर...जैसे कोई अपना हाथ मेरे सिर पर थामे हुए है
मैं नहीं हारा
है साथ न सूरज
चाँद न तारा ...जीने का एक नया अन्दाज़ सिखाता है आपका यह हाइकु !
मेघ बरसे
धरा -गगन एक
प्राण तरसे ।
2
तुम्हारा आना
आलोक के झरने
साथ में लाना ।
3
बसंत आया
धरा का रोम-रोम
जैसे मुस्काया ।
अलग अलग रंगों की छटा लिए हाइकु प्रकृति के सुंदर नज़ारे पेश करते हैं ....
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु' जी ने हिम शिखर की ऊँचाई पाई है !
बधाई इन सुन्दर हाईकु के लिये।
Kamboj ji sabhi haikoo eak se badhkar eak han ,kitni hi aisi samsayane han jo sapsat rup se ubhakar in haikuon men dekhne ko mili,layata bhi bahut hai,kabhi2 ham apni amulya chejon ko kho dete han kinhi karno se sahi...kuch hisse milne par bahut khushi hoti hai...bahut2 badhai..
ReplyDeletekamboj bhaisahab,
ReplyDeletesabhi haaiku padhi, sabhi behtareen hai. yun to kai haaiku ko dobara padhi lekin is haaiku mein thahar gai. itne kam shabd mein samaaj ke dohre maandand par isase achha kya likha ja sakta...
बेटी मुस्काई
बहू बन पहुँची
लाश ही पाई ।
bahut badhai aur shubhkaamnaayen.
hardeep ji ki baat se sahmat hoon itne sunder moti aaj samete aapne .lekin achchhi bat ye ki samete to sahi varna hum to is khajane se vanchit hi rah jate.
ReplyDeleteek ek shabd anmol hai
badhai
saader
rachana
कम्बोज जी ,आप के हायकू पढ़ कर दोहरा आनंद आया ,एक यह कि आप ने गागर में सागर भरा है .हायकू वास्तव में इसी प्रयोजन से लिखे जाते हैं .दूसरा यह कि इतने लम्बे समय के अन्तराल में फैले हायकू यह सन्देश दे रहे हैं कि स्वाभाविक रचना ही टिकाऊ होती है .आप को हार्दिक बधाई .
ReplyDelete