रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु
1
अश्रु का घर
ये निर्मम शहर
मत ठहर ।
2
मानव कम
धनपशु अधिक
बाँटें ज़हर ।
3
धूल बरसे
खुश ताज़ा हवा को
प्राण तरसें
4
बादलों से न
बरसता है जल
अम्ल बरसे
5
बिखरा विष
रसायनों का यहाँ
बना कहर ।
6
बाँझ धरती
यहाँ दम तोड़ती
रोज़ मरती
7
घूमे कुरूप
बेहया नग्न भूप
आठों पहर
8
मरे गरीब
भूख से या कर्ज़ से
हुए बेघर
9
नभ ऊपर
फुटपाथ बिस्तर
गुम ईश्वर
10
चौराहों पर
घूमता साँड जैसा
बेख़ौफ़ डर
11
घूमे दलाल
जो जहाँ मिल जाए
करें हलाल
12
दुराचार ही
इनका युग-धर्म
जीवन-सार
13
नारी-शरीर
भेड़ियों की भूख से
घायल हुए
14
आँसुओं -भरी
कोठरियाँ तड़पें
जाएँ भी कहाँ ?
आद. रामेश्वर जी,
ReplyDeleteअश्रु का घर
ये निर्मम शहर
मत ठहर ।
हर हाइकु हमारी संवेदना को झकझोर रहा है !
वर्तमान विद्रूपताओं का सटीक लेखा जोखा !
आभार !
अर्थपूर्ण हाइकु
ReplyDeleteअश्रु का घर
ReplyDeleteये निर्मम शहर
मत ठहर ।
मानव कम
धनपशु अधिक
बाँटें ज़हर ।
धूल बरसे
खुश ताज़ा हवा को
प्राण तरसें
इतने कम शब्दों मे समाज और जीवन की विसंगतिओं को कहना मुश्किल है मगर आपने मुश्किल को भी बहुत सुन्दर सरल ढंग से कह दिया। बधाई सभी हाईकु बहुत अच्छे लगे। आभार।
kothariyan tadpe----ye kothariyion ka manvikaran--bahut khub ban pada hai...sabhi haiku eak se badhkar eak han bahut2 badhai..
ReplyDeleteबहुत अच्छे लगे सभी हाइकु !
ReplyDeleteकम शब्दों में जीवन का लेखा जोखा ..
मानव कम
धनपशु अधिक
बाँटें ज़हर ।
इस हाइकु में आपने सच बात कही है...पता नही यह लोग कब ऐसा करने से बाज आएँगे ?
अश्रु का घर
ReplyDeleteये निर्मम शहर
मत ठहर ।
सही लिखा है आपने, आज का ये परिवेश अश्रु के घर से जादा कुछ और लगता ही नहीं... बस तानाशाही, स्वार्थपरता, भय और आतंक ही हर ओर छाया हुआ है.
लेकिन अब शायद इन्तहा हो गयी और जग जागने लगा है. आम आदमी उठ खड़ा हुआ है अपने हाथों में कमान सँभालने को और शायद यह नयी सुबह का शुभारम्भ होगा. एक कविता लिखनी शुरू की है, कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं ...
"जग जाग रहा है"
इक लहर चली है आंधी सी
परलय बन कर छा जाएगी
हर जोर जुलुम के दानव को
बस कच्चा ही खा जाएगी //
एक नहीं, दो - चार नहीं
अब जन-जन की यह वाणी है.
युग युग से हम दबे रहे, अब
हमने उठने की ठानी है //
या स्वयं छोड़ दो गद्दी को
या हम उतार कर फेकेंगे,
इतनी बात समझ लो तुम
मनमानी और न झेलेंगे //
मंजु मिश्रा
आँसुओं -भरी
ReplyDeleteकोठरियाँ तड़पें
जाएँ भी कहाँ ?
aaj yadi dasha hai
aapne jo pariyavaran pr likha hai vo to anmol hai .shayad ab bhi hum samajh jayen.
अश्रु का घर
ये निर्मम शहर
मत ठहर ।
sahi kaha aapne hum insan hi svyam apne ghr ko jala rahe hain kya kabhi sochenge hum
bahur saunder likha hai aapne
badhai
saader
rachana
अश्रु का घर
ReplyDeleteये निर्मम शहर
मत ठहर ।
........
मरे गरीब
भूख से या कर्ज़ से
हुए बेघर
......bahut badiya haiku
धूल बरसे
ReplyDeleteखुश ताज़ा हवा को
प्राण तरसें
बादलों से न
बरसता है जल
अम्ल बरसे
इंसान ने अगर अब भी प्रदूषण रोकने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास नहीं किया तो पता नहीं अपनी आगे की पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ जाएगा...।
बहुत अच्छे हाइकु, मेरी बधाई...।