एक महात्मा जी और एक डाकू को चित्रगुप्त के सामने पेश किया गया । चित्रगुप्त ने अपना बहीखाता खोला। गम्भीर स्वर में बोले–‘‘महात्मा जी, आपने अपने जीवन में तीन–चौथाई पुण्य किए हैं और एक–चौथाई पाप। कौन–सा भोग आपको पहले चाहिए?’’
महात्मा जी संयत स्वर में बोले–‘‘पापों का फल पहले भोग लूँ। उसके बाद तो स्वर्ग का आनन्द प्राप्त होगा ही।’’
चित्रगुप्त ने डाकू की ओर संकेत किया–‘‘अब तुम बतलाओ। तुमने तीन–चौथाई पाप किए हैं और एक चौथाई पुण्य।’’
डाकू चुप रहा।
महात्मा जी मुस्कराए।
‘‘कहिए, तुम्हें पहले क्या चाहिए?’’ चित्रगुप्त ने टोका।
नरक–यातना तो भोगनी ही है। पहले स्वर्ग का आनन्द क्यों न उठा लूँ?’’
‘‘ठीक है। यमराज जी से अन्तिम स्वीकृति लेकर व्यवस्था करा देता हूँ।’’
डाकू ने प्रसन्नता प्रकट की और बढ़कर चित्रगुप्त जी से खुसर–पुसर की।
तत्पश्चात् महात्मा जी को नरक के यातना केन्द्र पर भेज दिया गया और डाकू को स्वर्ग में। आज तक दोनों नरक तथा स्वर्ग भोग रहे हैं।
पथ के साथी
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