पथ के साथी

Saturday, February 26, 2011

मेरे कुछ हाइकु (10 मार्च 1986 से 12 दिसम्बर 2009)




मेरे  कुछ हाइकु (10 मार्च 1986 से 12 दिसम्बर 2009)

रामेश्वर काम्बोजहिमांशु
 [सन् 1982 के बाद फिर10 मार्च 1986 से  फिर मैंने कुछ हाइकु लिखे थे।तब से लेकर इधर -उधर बिखरे कुछ हाइकु प्रस्तुत हैं । विभिन्न स्थानों पर स्थानान्तरण के कारण कुछ डायरियाँ सुरक्षित नहीं रह सकीं। ]                              

[10 मार्च 1986 ]
1
मेघ बरसे
धरा -गगन एक
प्राण तरसे ।
2
तुम्हारा आना
आलोक के झरने
साथ में लाना ।
3
बसंत आया
धरा का रोम-रोम
जैसे मुस्काया ।
4
बरस बीते
आँसुओं के गागर
कभी न रीते ।
5
मन्द मुस्कान
उजालों ने दे दिया
जीवन -दान ।
6
आए जो आप
जनम-जनम के
मिटे संताप ।
7
कहीं हो नारी
अन्याय के जुए में
सदा से हारी
8
आज का इंसान
न पा सका धरती
न आसमान ।
9
चुप बाँसुरी
स्वर संज्ञाहीन -से
गीत आसुरी ।
1 0
तुम्हारे हाथ
सौंप दिया हमने
साँसों का साथ ।
11
व्याकुल गाँव
व्याकुल होरी के हैं
घायल पाँव ।
12
कर्ज़ का भार
उजड़े हुए खेत
सेठ की मार ।
13
बेटी मुस्काई
बहू बन पहुँची
लाश ही पाई ।              
-0-
[ 7जून,1997]
14
दाएँ  न बाएँ
खड़े हैं अजगर
किधर जाएँ ।
15
लूट रहे हैं
सब  पहरेदार
इस देश को
16
मौत है आई
जीना सिखलाने को
देंगे बधाई ।
17
मैं नहीं हारा
है साथ न सूरज
चाँद न तारा ।
18
साँझ की बेला
पंछी ॠचा सुनाते
मैं हूँ अकेला ।
-0-
[15 नवम्बर,2001]
19
फैली मुस्कान
शिशु की दूधिया या
हुआ विहान ।
20
सर्दी की धूप
उतरी आँगन में
ले शिशु -रूप
21
खिलखिलाई
पहाड़ी नदी-जैसी
मेरी मुनिया ।
22
खुशबू- भरी
हर पगडण्डी -सी
नन्हीं दुनिया ।
-0-
[16 नवम्बर ,2001]
23
तुतली बोली
आरती  में किसी ने
मिसरी घोली ।
24
इस धरा का
सर्वोच्च सिंहासन
है बचपन
25
मन्दिर में न
राम बसा है ,बसा
भोले मन में
-0-
[9 अक्तुबर ,2003]
26
साँसों की डोर
जन्म और मरण
इसके छोर ।
27
अँजुरी भर
आशीष तुम्हें दे दूँ
आज के दिन ।
-0-
[13 अक्तुबर ,2003]
28
फैली चाँदनी
धरा से नभ तक
जैसे चादर । 
29
काँपती  देह               
अभिशाप बुढ़ापा
टूटता नेह ।
30
जनता भेड़ें
जनसेवक -भेड़िए
खड़े बाट में ।
31
काला कम्बल
ओढ़ नाचती देखो
पागल कुर्सी ।
-0-
[20जुलाई ,2008]
32
आपकी बातें
खुशबू के झरने
 चाँदनी रातें 
33                                                              
पहला स्पर्श
रोम -रोम बना है
जल-तरंग                                                                
34
आज ये पल
जाह्नवी कल-कल
पावन जल                                                               
35
प्यार से भरे
नयन डरे-डरे
सन्ताप हरें                                                                 
36
भोर-चिरैया
तरु पर चहके
घर महके
-0-
[6 सितम्बर, 2008]
37
बेटी का प्यार-
कभी न सूखे ऐसी -
है रसधार ।
38
मोती से आँसू
बहकर निकले
दमका रूप ।
39
प्यार का कर्ज़
लगता कम पर
चुकता नहीं ।
40
ये स्कूली बच्चे
बिन परों के पाखी
उड़ते रहें।
41
चरण छूना
नस-नस में जैसे
प्रेम जगाना।
42
धरती जागी
ये अम्बर नहाया
चाँद मुस्काया।
43
चुकाएँ कैसे ?
जो भी तुमने दिया
हमने लिया।
44
प्यारी दुनिया-
अब जाना हमने
इसे सींचना ।
45
पढ़ें पहाड़ा
गाएँ मिलके गीत
सच्चा संगीत ।                                                               [12 दिसम्बर, 2009]

46

गले मिले थे
सपना टूट गया
आँसू छलके
47
भीगीं पलकें
छूती गोरा मुखड़ा
तेरी अलकें
-0-

Friday, February 18, 2011

छाया वसंत


मंजु मिश्रा
1
छाया वसंत
सज गई धरती
उमड़ी प्रीत  
छाया: काम्बोज ,केवि हज़रतपुर
 2
तन झाँझर  
संगीत बनी  धरा  
मन मयूर
 3
उम्र बहकी
जोड़ लिया मन ने
संगी से नाता
4
आकाशी पेड़
हरी भरी धरती
सूर्य पाहुना
 5
हो  हर दिन,
सौगातें साथ लिये
वसंत आए
-0-
मंजु मिश्रा

Thursday, February 17, 2011

भटका मेघ



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
दु:ख हैं बड़े
गली-चौराहे पर
युगों से खड़े
2
पुरानी यादें-
सुधियों की पावस
भीगा है मन
3
नम हैं आँखें
बिछुड़ गया कोई
छूकर छाया
4
बेबस डोर
बाँधे  से नहीं बँधे
लापता छोर ।
5
भटका मेघ
धरती को तरसे
तभी बरसे





                                      
6
सिसकते मन को
उड़ा पखेरू



7
रड़कें नैन
छिन गई निंदिया
मन का चैन
8
याद तुम्हारी
छल-छल छलकी
बनके आँसू
9
झील उफ़नी
जब बिसरी यादें
घिरीं बरसीं
-0-




Monday, February 7, 2011

त्रिपदियाँ


उमेश महादोषी                                                                                                                                                       ||एक ||


मैकू देखे आकाश
पेट पर पड़ी लातों से
ये क्या निकलता है...!


||दो||
आँखों में फूटती जो
भूख भी होती कुछ कम
आँखों झरी रुलाई!


||तीन||
खाई में डूबी आँखें 
देखतीं फिसलते पैर 
चीख फँसी गले में


||चार||
दूसरी औरत है
धर्म निभाती पहली का
ताने खा, पीती आँसू !

-0-

Thursday, January 27, 2011

व्यंग्य /शकुनि मामा



 रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
   शरद कुमार निडर । इनके कार्यलाप के चहुँमुखी विकास के कारण घिसकर रह गया-शकुनि । कुछ दिन बाद अपने दफ्तर से जु़ड़कर संशोधित हो गया-शकुनि मामा। मैं इन्हीं शकुनि मामा से आपका परिचय कराना चाहता हूं। शीशम के झांबे-सा शरीर, डेढ़ किलो गोश्त और साढ़े बत्तीस किलो हाड़। आप अपने किसी भी परिचत-अर्धपरिचित का नाम लीजिए शकुनि जी उसका आरोपित हुलिया सयाने ओझा की तरह बता देंगे। आप मामा के बताए लक्षणों को बटोर लीजिएगा। उनमें से कोई भी चार-पाँच लक्षण छाँट लें- एक अदद परिचित-अर्धपरिचित का स्वरूप तैयार।
कुछ हुलियों में अंग-प्रस्तुति इस प्रकार होगी- नाटा-सा, लंबा-सा, मोटा-सा, पतला-सा है न? बड़ी-बड़ी मूँछो वाला, मुँछकटा- छोटी मूँछों वाला। नाक- लंबी, चपटी, तोतापरी, चिमनी-सी। आँखे- कंजी, घुच्ची, चुँधियाती, उबले अंडे-सी। आवाज़- भारी, महीन, जनाना, खुरदरी, फटे बाँस-सी। विशेषता- नालायक, नामाकूल, पक्का धोखेबाज़। ये न जाने कितने लोगों से परिचित हैं। अपरिचित-परिचित सभी से परिचित। ये अगर परिचित नहीं है तो बस अपने आप से।
धू्म्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हानिकारक वस्तुएँ ख़रीदना समझदारी की बात नहीं कही जाएगी। यही कारण है कि शकुनि जी बीड़ी-सिगरेट माँगकर पीते है। यदि ख़रीद कर पिएँगे तो पाप लगेगा। अगले जन्म में हो सकता है किसी ठलुए चौधरी का हुक्का बनना पड़े जिसे चौपाल में आने वाला हर परिचित गु़ड़गु़ड़ाता रहेगा। इनका पान का शौक भी मुफ्त पर आधारित है। इनके इस शाही शौक से आहत होकर मेहरचंद जी ने कह दिया था - "आप भले ही हमारी जान ले लें, पर हमसे पान न माँगे। पान न खाने से हमारी जान ही चली जाएगी।"
'माले-मुफ्त दिले-बेरहम' की उक्ति उन पर पूरी तरह लागू हो सकती है। कसाई का माल भैंसा भले ही न खा पाए, शकुनि जी अवश्य खा सकते हैं। इन्हें किसी 'पचनोल' की आवश्यकता नहीं पड़ती। आप बड़े स्वाभिमानी जीव हैं लेकिन यह स्वाभिमान केवल शब्दों तक सीमित है। फोकट की चीज़ अगर नरक में भी मिलेगी तो चोर दरवाज़े से ये वहाँ भी सबसे पहले पहुँच जाएंगे। हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के  और होते हैं। शकुनि जी के दाँत भी दो प्रकार के हुआ करते हैं। पहली प्रकार के दाँत उस दिन टूट गए थे, जिस दिन इन्होंने पहलवानी शुरू की थी। किसी पहलवान ने इनको पटखनी नहीं दी थी। वरन मुगदर उठाते समय ये मुँह के बल गिर पड़े थे। न जाने कब से दाँत इनसे पीछा छु़ड़ाने की तलाश में थे। मुगदर की मूँठ लगते ही मुख से नाता तोड़ बैठे। ढूँढने पर मिल भी न पाए। शायद कभी पुरातत्त्व विभाग को मिल जाएँ और आने वाली पीढ़ियों का ज्ञानवर्धन करें।
शकुनि जी हर बात ऐसे करेंगे कि जैसे सामने वाले के कंधे पर अपने दाँत गड़ा देंगे। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए इन्हें नकली दाँतों का सैट लगवाना पड़ा। डॉ  खान को अभी तक पूरा भुगतान नहीं किया गया है। यदि किसी दिन इनको राह-घाट में मिल गए तो दुर्गति भी हो सकती है, इनका सैट छीना भी जा सकता है। नकली दाँतों के कारण इनकी सारी बातें नकली सिद्ध होने लगी है अतः साथियों ने इन पर विश्वास करना छोड़ दिया है। जब इन्होंने बिस्मार्क का अध्ययन शुरू किया तो उसका प्रयोग साथियों के ऊपर करना शुरू कर दिया। सदा शांत रहने वाले साथी इनकी तिकड़मों से फंसकर परेशान हो उठे। ये हमेशा कंधे की तलाश में रहे हैं। दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना इनका प्रिय खेल है। इनका यह खेल अनजाने ही कुछ समय तक पूरा होता रहा। 'मुगल साम्रााज्य का पतन' ख़त्म होने पर इनका भी पतन शुरू हो गया। इनकी खलीफ़ा बन जाने की इच्छा अधबीच में दम तोड़ गई। ये इस समय बड़े मनोयोग से 'भारत-विभाजन के कारण' पढ़ रहे हैं । संभवतः तिकड़म-बाज़ी के कुछ और गुर सीख लेंगे।
चौधराहट स्थापित करने का ये कोई भी अवसर चूक जाएँ, संभव नहीं। पावस ऋतु इनके लिए हर साल चुनौती बनकर आती है। इस मौसम में इनकी हालत मेघदूत के विरही यक्ष जैसी हो जाती है। ये कभी बादलों की तरह मँडराने का प्रयास करते हैं तो कभी बिजली की तरह कड़कने का। कभी-कभी इनके हृदय में षडयंत्रों की सफलता का इंद्रधनुष कौंधने लगता है। पावस ख़त्म होते ही इनके सारे साहस पर बाढ़ का पानी फिर जाता है। मई-जून के धूल बवंडर के साथ सिर उठाने वाली तिकड़में पितृ-विसजर्न के साथ विसर्जित हो जाती है।
साथियों का आपसी प्रेम इन्हें नहीं सुहाता। जब किन्हीं दो मित्रों में ग़लतफ़हमी या विवाद हो जाता तब इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। तब बारी-बारी से उनके कान फूँकने का कर्म करते रहते हैं। यदि ये शाम को मोहन को पाठ पढ़ाने के लिए जाते हैं तो भोर में हरीश के मन में विष- बीज बोने का प्रयास करते है, अपने दाँतों में छिपी विष की थैली से कुछ बूँदे रोज़ टपकाते रहते हैं। जब मोहन और हरीश का मन एक दूसरे से पूरी तरह फट जाता है, तब ये दलाल की भूमिका निभाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। वैसे अधिकतर अवसरों पर इन्हें दोनों ही पक्षों के कोप का भाजन बनना पड़ा है।
अच्छा काम करना शकुनि मामा के लिए बड़ी यातना है। अगर ये ग़लती से एक अच्छा काम कर बैठें तो प्रायश्चित स्वरूप इन्हें दस बुरे काम करने पड़ते हैं। किसी का भला करने पर इनकी रातों की नींद उड़ जाती है, सिर दर्द करने लगता है, टाँगे लड़खड़ाने लगती हैं। जो इनके जितना निकट होता है, ये उसको उतना ही डंक मारते हैं। डंक मारने पर भी ये सामान्य बनने का भरपूर अभिनय कर लेते हैं। अपना स्वास्थय पूरा करने के लिए लोग गधे को भी बाप बना लेते है। लेकिन शकुनि जो और आगे बढ़ जाते हैं- ये गधों को परमपिता परमेश्वर मानकर पूजने लगते हैं। सुबह-शाम गधों की पूँछों को धोने-पोंछने का कार्य करने लगते हैं।
मिस्टर शकुनि बिच्छू नहीं, फिर भी डंक मारना इनकी 'हॉबी' है। हमें इनकी 'हॉबी' की कदर करनी चाहिए। इनकी वाणी मोर की तरह मधुर है, लेकिन ये मोर की तरह सर्प-भक्षण नहीं करते हैं। इन्हें झूठ बोलना बहुत प्रिय है। सच बोलने से इनकी जीभ ऐंठने लगती है। इसीलिए ओढ़ने-बिछाने में भी ये झूठ को ही वरीयता देते हैं। ईमानदारी को बनियान से ज्यादा महत्त्व नहीं देते। इनका कहना है - एक बनियान दो दिन पहनना मुश्किल है। बदबू करने लगता है। ईमानदारी भी बदबूदार बनियान की तरह है। जितनी देर ईमानदारी को पहनोगे उतनी देर आसपास में बदबू फैलाओगे।
दफ्तर का सामान घर में रख लेने से ईमानदारी का सतीत्व नहीं डिगता। सरकारी फ़ाइलों में हेराफेरी नहीं करेंगे तो हेराफेरी का अभ्यास कैसे होगा? लोग क्या कहेंगे? मूर्ख  कहकर चिढ़ाएँगे। दफ्तरों में पतित होने का सौभाग्य कितने लोगों को मिलता है? सिर्फ़  गिने-चुने लोगों को। जहाँ अवसर हो वहाँ ईमानदारी की रामनामी चादर ओढ़ लेनी चाहिए।
हम सब मिलकर प्रातः स्मरणीय शकुनि मामा की दीर्घायु की कामना करते हैं। ये सौ साल तक जिएँ और इस लोमड़ीमय स्वभाव से पास-पड़ोस को सजग बनाए रखें।
-0-

Monday, January 17, 2011

बर्फ़ीला मौसम

डॉ सुधा गुप्ता
1
दिन चढ़ा है
शीत -डरा सूरज
सोया पड़ा है
2
झाँका सूरज
दुबक रज़ाई में
फिर सो गया
3
हरे थे खेत
 पोशाक बदल के
हो गए श्वेत
4
बर्फ़ीली भोर
पाले ने नहलाया
पेड़ काँपते
5
दानी सूरज
सुबह से बाँटता
शॉल- दोशाले
6
पौष की भोर
कोहरा थानेदार
सूर्य फ़रार                                                                                  -0-                                                                                           डॉ सुधा गुप्ता जी के और अधिक हाइकु अनुभूति  पर पढ़ें 

Sunday, January 9, 2011

जगे अलाव


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
ठिठुरी रात
किटकिटाती दाँत
कब हो प्रात: !
2
कोहरा घना
दिन है अनमना
काँपते पात ।

3

जगे अलाव

बतियाते ही रहे
पुराने घाव ।


4
पुराने दिन
यादकर टपके
पेड़ों के आँसू ।

5

सूरज कहाँ?

खोजते हलकान
सुबहो-शाम ।




6
चाय की प्याली
मीत बनी सबकी
इठला रही।
7
बूढ़ा मौसम
लपेटे  है कम्बल
घनी धुंध का
8
सूझे न बाट
मोतियाबिन्द आँखें
जाना किधर ।
9
कुरेद रही
धुँधलाई नज़र
बुझे चेहरे ।
-0-

Wednesday, January 5, 2011

भर-भर गागर देना ।

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दो बूँद भी
प्यार मिला है
मुझको जिनसे
उनको
भर-भर गागर देना ।
सुख-दु:ख में
जो  साथ रहे
परछाई बन
सुख के
सातों सागर देना ।
बोते रहे
हरदम काँटे
प्यार-भरे दिल
तोड़े
उनको भी समझाना ।
फूल खिलाते
रहे जो भी
सपनों में भी
उनको
हरदम गले लगाना।
-0-