पथ के साथी

Wednesday, November 19, 2025

1476

डॉ. सुरंगमा यादव

मंजिलों से परे

 

 न जाने किसकी प्रतीक्षा में

 मुख म्लान हो चला है

 जिसे कभी टकसाल में ढले

 नए सिक्के की तरह

 निर्मल- निष्कलुष कहा जाता था

 स्वागत में लगे बंदनवार की तरह

 मुरझाने लगा है मन

 धीरे -धीरे झड़ने लगी हैं पंखुड़ियाँ

 किसी अपने की, जो सचमुच अपना हो

 प्रतीक्षा में राह तकते-तकते

 वह खुद राह बन गई है

 एक ऐसी राह,जो छायादार है

 सुगम है, सुरक्षित है

 हर आने वाला उससे होकर गुजरता है

 अपनी मंजिल तक पहुँचता है

 ‘सुगम राह’ कहकर आगे बढ़ जाता है

 और वह राह, वहीं के वहीं

 खड़ी रह जाती है

 मंज़िलों से परे ।

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Monday, November 10, 2025

1475-अंधी दौड़

 


कृष्णा वर्मा

तुम मिले, तुम्हें देखकर लगा
ज्यों छले गए हो किसी से
बहुत गिले हैं तुम्हें ज़िंदगी से
तुम्हारी उदासियों की बर्फ़ पिघलाने को  
तुम्हें बढ़कर गले लगाया
अपनत्व की झप्पी दी कि दे सकूँ
ज़रा- सी राहत तुम्हारी बेज़ारियों को
तुम्हारे टूटे हौसले को दे सकूँ ज़रा भर टेक
तुम जब भी मिले सच को छिपाने को
एक ख़ुशनुमा चेहरा ओढ़कर मिले
न तुमने कभी बताया
न मैंनें कभी पूछा, न जताया
धीरे-धीरे तुम्हें टेक रास आने लगी
और तुम अश्वस्त होने लगे
बदलियों- सी छटने लगीं तुम्हारी उदासियाँ
तुम्हारे चेहरे पर इतमीनान और
चलने- फिरने में विश्वास झलकने लगा
तुम्हारा सँवरना बताने लगा था कि
अब तुम करने लगे हो ख़ुद से प्यार
तुम्हारा सकारात्मक परिवर्तन अब
मिलाने लगा था औरों के हाथों से हाथ
यकायक तुम्हारे कदमों ने
इस तरह तेज़ की रफ़्तार कि
कोई अवसर चूक न जाए हाथ से
और तुम टेक को वहीं छोड़कर
नई चोट के लिए
शामिल हो गए अंधी दौड़ में।
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