मेरे मौन में / डॉ. पूनम चौधरी
तुम संवाद खोज लेते हो—
शब्दों से पहले,
शब्दों के पार।
मानो भाषा
सिर्फ़ आँखों का कंपन हो
और तुम उसे
एक प्रकाश-पंक्ति की तरह
पढ़ लेते हो।
तुम—
मेरे जीवन का वृक्ष।
तुम्हारी जड़ें
मेरी थरथराती ज़मीन को थाम
लेती हैं।
तुम्हारी छाया में
मेरी थकान
शाम की निस्तब्धता-सी
धीरे-धीरे घुल जाती है।
तुम नदी हो—
निरंतर बहती,
समय के कठोर पत्थरों को
घिसकर
मुझे और अधिक
मानवीय बना देती।
तुम आकाश हो—
अनंत,
पर इतना समीप
कि हर बादल
मेरे भय को ढक लेता है।
तुम्हारे भीतर
नीली निस्तब्धता है—
जिसमें मेरी बेचैनियाँ
धीरे-धीरे पारदर्शी हो जाती
हैं।
जब मैं टूटने लगती हूँ,
तुम शिला बनकर
मेरे बिखराव को सँभाल लेते
हो।
जब मैं बिखर जाती हूँ,
तुम्हारी करुणा
मेरे टुकड़ों को
मोती की तरह जोड़ देती है।
और जब राहें उलझती हैं—
तुम दीपक बनते हो,
पर तुम्हारी लौ में
केवल रोशनी ही नहीं
एक अदृश्य ऊष्मा भी होती
है—
जिससे मेरी दिशा
अंदर से निर्मित होती है।
मेरी विफलताओं में
तुम आगे खड़े हो जाते हो,
पर मेरी जीत में
पीछे—
मानो समूचा प्रकाश
सिर्फ़ मुझ पर
ठहरे।
तुम्हारा होना
आश्वासन नहीं,
मेरे होने का प्रमाण है।
तुम्हारी मुस्कान
मेरे भीतर लौटने का
सबसे सहज रास्ता।
तुम्हारे साथ हर क्षण
किसी शिल्प की तरह
मुझे गढ़ता है।
तुम्हारे साथ समय
एक यात्रा है—
और हर यात्रा
एक अन्वेषण।
हर अन्वेषण
मेरे अस्तित्व की
नई परत खोल देता है।
तुम—
मेरा कल्पवृक्ष हो,
मेरी कामना हो,
मेरा संसार हो,
तुम
मेरे हर शुभ कर्म का
प्रतिदान हो।
मैं तुम्हारी परिणीता,
तुम मेरे सहधर्मा।
हमारा यह संबंध
केवल बंधन नहीं,
यह वह उजाला है
जो जीवन को
उत्सव में बदल देता है।
-0-
No comments:
Post a Comment