रश्मि विभा त्रिपाठी
1
अब
सीने पर रख लिया है पत्थर
मैंने
और जज्बात सीने के
रख लिए हैं आँखों में
ताकि जिसके लिए
दिल जज्बाती हुआ था
ज़िन्दगी में पहली बार,
और पाया था मौत से बदतर दर्द
फिर से न उठे हूक वैसी
इस दिल में
जिसने
आँखों का कलेजा
चीर दिया था
कलेजा न होते हुए
तब रोते हुए
की थीं मिन्नतें
आँखों ने
दिल से
कि मेरी रोशनी तुम ले लो
और मुझे दे दो जज्बात
ताकि तुम देख सको
जज़्बात से खेलने वाले को
और मैं न रोऊँ
तुम्हारे दर्द को महसूस कर
इसलिए आँखें रखेंगीं जज्बात
फिर दिल न हो पाएगा
उम्रभर मजरूह
दिल देखेगा अब
जिस्मों में जिन्दा बच गई रूह।
—0—
2
मेरे मन की झील में
तुमने फेंका था एक कंकड़
अपने प्रेम का
जिससे तरंगित हुई थी मेरी आत्मा
प्रेम में सर्वस्व अर्पण करने के
नियम पर चलते- चलते
मैं बन गई नदी,
और...
ढोते- ढोते मुगालते
तुम
बन गए पहाड़
मुझसे पीछे छूटकर
तुम दरक गए
तुम प्रेम के पथिक थे नए
तुम्हें ढंग
होता चलने का
प्रेम के साँचे में ढलने का
तो
मैं जब नदी बनी थी
तुम बनते सागर
और तब
न केवल
हम एक दूजे में समा जाते
बल्कि आधुनिक प्रेमियों के हाथ में
प्रेम की दुनिया तक पहुँचने का
नक्शा थमा जाते।
—0—
वाह, बहुत सुन्दर कविताएँ, हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteअत्यंत भावपूर्ण कविताएँ ।सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई रश्मि जी। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteगहन संवेदना से भीगे मर्मस्पर्शी उद्गार। हार्दिक बधाई प्रिय रश्मि विभा ।
ReplyDeleteभावपूर्ण मर्मस्पर्शी कविताएँ...हार्दिक बधाई रश्मि जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteदोनों कविताएँ बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
मर्मस्पर्शी कविताएँ। बधाई रश्मि जी
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