पथ के साथी

Monday, October 20, 2025

1474-दीपोत्सव

 

1-दीपावली: स्मृतियों के नाम/ डॉ. पूनम चौधरी 

 

 

आँगन में सजे हैं दीप —

समय के पुराने पात्रों में,

मिट्टी के,

थोड़े टेढ़े, थोड़े थके हुए।

तेल की गंध हवा में घुली है,

कपोलों पर फैलती गरमाहट,

और धुएँ में

धीरे-धीरे आकार लेने लगते हैं

चेहरे —

जिनमें अतीत अब भी साँस ले रहा है।

 

पहला दीप —

पिता के नाम।

काँपती है लौ,

पर बुझती नहीं —

जैसे किसी अदृश्य हाथ की

अब भी छाया हो उस पर।

उनकी आवाज़ अब भी आती है —

"धीरे चलो, कहीं हाथ न जल जाए..."

और मैं सोचती हूँ,

अब हाथ नहीं जलते,

पर हृदय हर बार

थोड़ा और पिघल जाता है।

 

दूसरा दीप —

माँ को समर्पित!

उसमें गंध है हल्दी की,

तुलसी की, आँचल की —

और किसी पुरानी आरती की

मद्धम स्वर-लहरी,

जो अब भी कमरे के कोनों में

मौन का संगीत बनकर बजती है।

 

तीसरा दीप —

उन मित्रों के नाम

जो साथ चले थे —

स्मृतियों की पगडंडियों पर,

जिनके शब्द अब पत्तों की तरह झरते हैं

हर पतझड़ में,

और फिर भी

धरती को नया हरापन देते हैं।

 

चौथा दीप —

उन सपनों के लिए

जो अधूरे रह गए,

जिन्हें कहने का समय नहीं मिला,

पर जो अब भी हृदय में अंकित हैं —

जैसे बंद खिड़की से देखा गया आसमान।

 

हवा धीरे-धीरे काँपती है

हर लौ के चारों ओर।

कोई दिखाई नहीं देता,

पर हर प्रकाश के पीछे

अनुभूत होता है —

किसी का होना।

 

आँगन के कोने में

तुलसी झिलमिला रही है —

उसकी पत्तियों पर ओस है,

जो स्मृतियों की तरह चमकती है,

जैसे जीवन अब भी

मृत्यु की निस्तब्धता में साँस ले रहा हो।

 

आकाश में गूँजती है आतिशबाजी —

पर भीतर,

किसी पुरानी हँसी की गूँज है,

किसी पुराने नेह की छाया है,

जो बताती है —

उजाला कभी बाहर से नहीं आता,

वह भीतर की विरह से जन्मता है।

 

धीरे-धीरे

दीयों की नदी बन जाती है —

प्रकाश की निर्वेद धारा,

जो समय के पार बहती है।

उसमें झलकते हैं बिम्ब —

चेहरों के, छवियों के,

अनगिनत थोड़े-से बीते हुए क्षणों के।

 

कहीं कोई शोक नहीं,

न कोई विलाप —

केवल एक गहरा, स्थिर भाव —

जैसे आशीष की लहर

धरा के आर-पार बह रही हो।

 

और अब —

ये दीप-माला सबकी है,

हर लौ में किसी की स्मृति है,

हर छाया में किसी का आलिंगन।

यह दीपावली

किसी एक क्षण की नहीं —

मानवता की सामूहिक स्मृति है;

क्योंकि हर उजाला

जन्मता है अंधकार से,

हर अनुपस्थिति

किसी और की उपस्थिति बन जाती है।

 

यही दीप-धर्म है —

बुझकर भी

जलने का अर्थ दे जाना।

इसलिए समर्पित —

ये दीपमाला,

उन सबके नाम,

जो बीत गए,

किंतु धूमिल नहीं हुए,

जो जाने के बाद भी

रहे बसे,

हमारे भीतर —

उजास की तरह

प्रेम की तरह

अनंत की तरह।

 

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2-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


साथ सारे छोड़ देंगे मोड़ पर;
एक तुम हो साथ, यह विश्वास है।

हम अँधेरों से लड़ें, आगे बढ़ें,
होगा उजेरा आज भी आस है

 

आओ लिखें  दीप नभ के भाल पर
अधर हँसे कि झरें पारिजात भी।
सुरभि में नहाकर हो पुलकित धरा
ओस भीगे सभी पुलकित पात भी।

बुहारता उदासियों की धूल को
थिरकता गली -गली में उजास है।

हम अँधेरों से लड़ें, आगे बढ़ें
होगा उजेरा आज भी आस है ।
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Tuesday, September 30, 2025

1473

 अनिमा दास, सॉनेटियर , कटक, ओड़िशा 

  

1-क्लांति 

 


इस तृष्णा से तुम हो क्यों अपरिचित
  

इस अग्नि से तुम हो क्यों अवरोधित  

मेरे शून्य महाग्रह का यह तृतीय प्रहर 

है मौन विभावरी का यह शेष अध्वर 

 

इस क्षुधा से भी तुम हो ऐसे अज्ञात 

इस श्रावण से हो तुम जैसे प्रतिस्नात 

मेरी परिधि में नहीं अद्य उत्तर तुम्हारा 

मेरे परिपथ पर नहीं कोई शुक्रतारा।

 

इस एकांत महाद्वीप पर है ग्रीष्मकाल 

भस्मसात निशा...व पीड़ा-द्रुम विशाल 

समग्र सत्व है निरर्थक...अति असहाय 

मृत-जीवंत, स्थावर-जंगम सभी निरुपाय

 

 

इस अंतहीन मध्याह्न की नहीं है श्रांति

ऊषा के दृगों से क्षरित अश्रुधौत क्लांति।

 

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 2-प्रत्यंत 

 

मोहवश मैंने कहा, ऐ नीड़ हो जाओ अदृश्य 

क्षण में ही शून्य हुआ ग्रह -विग्रह.. समग्र अंतरिक्ष 

क्षुब्ध हो कहा मैंने, मेरी एकाकी अभीप्सा रहे अस्पृश्य

सर्ग से निसर्ग पर्यंत लंबित,हो जाए तिक्तता का वृक्ष,

 

संभव हुआ अकस्मात्। विक्षिप्त उल्काओं की वृष्टि,

स्तंभित आत्मा की आर्तध्वनि,नीलवर्ण में हुई द्रवित।

व्यासिद्ध अंतरीप की पूर्व दिशा में थी उसकी दृष्टि 

चीत्कार! चीत्कार! अनाहूत पीड़ाओं में अद्य स्वरित 

 

वह समस्त अभियाचनाएँ हुईं जीवित.. तत्क्षणात् 

वह नहीं हुआ संभव.. देह की सुगंध में था गरल 

वारिदों के घोर निनाद में लुप्त हुआ था क्रंदन स्यात्

समग्रता का एक अंश क्या था.. स्थल अथवा जल?

 

मैं शून्य की मंदाकिनी..किंतु अप्राप्ति की तृष्णा अनंत 

कहाँ है आदि-अंत की वह अदिष्ट ज्यामितिक प्रत्यंत?

Sunday, September 28, 2025

1472

 1-अनुपमा त्रिपाठी ‘सुकृति

1


कल- कल बहती हुई नदी

यूँ ही तराशती है

तिकोने पत्थरों को

और ले जाती है चुभन

हर बार

अपने साथ

इस तरह

कि तराशते रहने से ही

गोल पत्थरों के होने का वजूद है

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2

रात फिर नींद नहीं आई

कि अनायास महकती रही यादें

कि हरसिंगार बरसता रहा टप- टप

भीनी- भीनी ख़ुशबू से

शब्दों का बरसना देखती रही

और बुनती रही नायाब सी

अपनी प्रेमासक्त कविता...!!!

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2-जीवन की कीमत/ डॉ. सुरंगमा यादव

 


चंद सिक्के बड़े जिंदगी से हुए,

जीवन की कीमत सिफर हो गई

पत्थरो के कलेजे पिघलते नहीं

मिन्नतें तो सभी बेअसर हो गईं

गिड़गिड़ाई बहुत हाथ भी जोड़कर,

अनसुनी हरेक याचना हो गई

 जिस गुलिस्ताँ में उसने खिलाए सुमन

हर क्यारी सामने ही धुआँ हो गई

सात फेरों की अग्नि चिता थी बनी

जिसमें जीते जी राख कामना हो गई

न सती वो हुई, न ही जौहर किया,

मैं सुहागन मरूँ यही की थी दुआ

वो सुहाग के हाथों होलिका हो गई

जान पर  बनी, पाँव देहरी लाँघ चले

पर ज़माने की नजरें, की बेड़ियाँ हो गईं

सुलह समझौतों के कितने चले सिलसिले

आखिरी घड़ी भी आज आ खड़ी हो गई

कितनी चीखें दीवारों से टकराती रहीं

देहरियों पे जिंदगी स्वाहा हो गई।

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Friday, September 19, 2025

1471-काकोरी ट्रेन एक्शन

 

विता-

काकोरी ट्रेन एक्शन

 शिवानी रावत , बी.ए.तृतीय वर्ष

 


किसे पुकारूँ बिस्मिल कहकर

रोशन सिंह जाने कहाँ खो गया

कैसे भूल जाऊँ राजेंद्र तुम्हें

तू तो ब्रिटिश राज को दहला गया

आँखों में मौत का खौफ न था

 तुम्हें जन्नत का शौक न था

जिंदगी  वतन के नाम थी

धन्य हो वीर सपूतो!

तुम्हारी नींद वतन पर नीलम थी

जिक्र छिड़ा जब अशफाक उल्ला का

फिर-फिर काकोरी एक्शन याद गया

पलकों में आँसू छुपाए

बस इतनी सी ख्वाहिश रखती हूँ

मेरे वतन की आबरू सलामत रहे

खुदा से यही गुजारिश करती हूँ

पाल लूँगी मैं भी अपने हाथों में

हुनर लाजवाब

पूरा करूँगी मैं भी अपने वतन का

हर एक ख्वाब

न मैली होने दूँगी उस आजादी को

जिस पर लगा गुलामी का दाग

हर वीर अपने खून से धो गया ।।

 

Sunday, September 14, 2025

1470-हिन्दी -दिवस

डॉ. कनक लता मिश्रा



तुम स्रोत हो, तुम भाव हो

तुम शक्ति हो, तुम प्रभाव हो

हस्ती हमारी तुमसे है

 मेरा पथ हो तुम, तुम्हीं पड़ाव हो

अज्ञान का तम छँट गया,

घनघोर बादल हट गया

अंतः तमस् ज्योतित हुआ,

तुम वह अलौकिक प्रकाश हो

अतिशय तुम्हारे रूप हैं,

अतिशय तुम्हारी शैलियाँ

कभी गद्य में कभी पद्य में,

हर रंग में अठखेलियाँ

डूबी तुम्हारे ज्ञान रस,

तब पार उतरीं कश्तियाँ

उत्कृष्ट तुम, तुम दिव्य हो,

तुम ईश्वरीय नैवेद्य हो


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Tuesday, August 19, 2025

1479

 मेरे मौन में / डॉ. पूनम चौधरी

 

तुम संवाद खोज लेते हो—

शब्दों से पहले,

शब्दों के पार।

मानो भाषा

सिर्फ़ आँखों का कंपन हो

और तुम उसे

एक प्रकाश-पंक्ति की तरह पढ़ लेते हो।

 

तुम—

मेरे जीवन का वृक्ष।

तुम्हारी जड़ें

मेरी थरथराती ज़मीन को थाम लेती हैं।

तुम्हारी छाया में

मेरी थकान

शाम की निस्तब्धता-सी

धीरे-धीरे घुल जाती है।

 

तुम नदी हो—

निरंतर बहती,

समय के कठोर पत्थरों को

घिसकर

मुझे और अधिक

मानवीय बना देती।

 

तुम आकाश हो—

अनंत,

पर इतना समीप

कि हर बादल

मेरे भय को ढक लेता है।

तुम्हारे भीतर

नीली निस्तब्धता है—

जिसमें मेरी बेचैनियाँ

धीरे-धीरे पारदर्शी हो जाती हैं।

 

जब मैं टूटने लगती हूँ,

तुम शिला बनकर

मेरे बिखराव को सँभाल लेते हो।

जब मैं बिखर जाती हूँ,

तुम्हारी करुणा

मेरे टुकड़ों को

मोती की तरह जोड़ देती है।

 

और जब राहें उलझती हैं—

तुम दीपक बनते हो,

पर तुम्हारी लौ में

केवल रोशनी ही नहीं

एक अदृश्य ऊष्मा भी होती है—

जिससे मेरी दिशा

अंदर से निर्मित होती है।

 

मेरी विफलताओं में

तुम आगे खड़े हो जाते हो,

पर मेरी जीत में

पीछे—

मानो समूचा प्रकाश

सिर्फ़ मुझ पर

ठहरे।

 

तुम्हारा होना

आश्वासन नहीं,

मेरे होने का प्रमाण है।

तुम्हारी मुस्कान

मेरे भीतर लौटने का

सबसे सहज रास्ता।

 

तुम्हारे साथ हर क्षण

किसी शिल्प की तरह

मुझे गढ़ता है।

तुम्हारे साथ समय

एक यात्रा है—

और हर यात्रा

एक अन्वेषण।

हर अन्वेषण

मेरे अस्तित्व की

नई परत खोल देता है।

 

तुम—

मेरा कल्पवृक्ष हो,

मेरी कामना हो,

मेरा संसार हो,

 

तुम

मेरे हर शुभ कर्म का

प्रतिदान हो।

 

मैं तुम्हारी परिणीता,

तुम मेरे सहधर्मा।

हमारा यह संबंध

केवल बंधन नहीं,

यह वह उजाला है

जो जीवन को

उत्सव में बदल देता है।

 

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