पथ के साथी

Friday, June 13, 2025

1469

 

तन्हाई -  कृष्णा वर्मा 

 

तन्हाई से घिरा पूछता हूँ स्वयं से

क्यों हैं इतनी तन्हाई

जिसे आए दिन पीता हूँ 

प्रतिदिन जीता हूँ 

टूटन समेटकर  

सपनों की परेशानियाँ धोकर 

अपने हिस्से का रोकर 

उजले कपड़े पहनकर 

चेहरे पर मुस्कान ओढ़कर

वजूद के दाएँ-बाएँ देखकर 

पूछता हूँ आइने से

बता तो क्या आज कोई ऐसी नज़र पड़ेगी 

जो बन जाएगी मेरे अधूरेपन का तोड़

खिलाएगी जीवन में फूल

कोई ऐसी राह कोई जीने की उम्मीद

कोई लुहारिन जो काट देगी 

तन्हायों की साँकल

आईना बोला- शायद पक्का नहीं कह सकता 

पर कोशिश करके देख लो 

अपने सपनों और स्वप्नफल को 

आशाओं के बस्ते में रखकर 

चाहतों के जुगनू आँखों में सजाकर 

टाँगकर काँधे पर बस्ता 

लगाता हूँ घर की तन्हाइयों पर ताला 

बाहर निकलकर 

मेरी सुनसान दुनिया से अंजान 

मेरे मिलने वाले जानकारों से मिलता हूँ

अपनी सूनी आँखें चमकार 

अकेलेपन की पीड़ा दबाकर 

सन्नाटों को छुपाकर  

होठों पर मुस्कान सजाकर 

दोहराता हूँ प्रतिदिन यही क्रिया

लाख ना चाहूँ फिर भी हो जाता हूँ रोज़ 

इस दुनिया की भीड़ का एक हिस्सा।   

-0-

 

 

 

 

Friday, May 30, 2025

1468

 

विजय जोशी

 (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल )

 


1

प्यार तो एक फूल है

फूल तो एक प्यार है

हम- तुम :

इसकी दो पंखुरियाँ हैं

समय रहते न रहते

पंखुरियाँ झर जाएँगी

शेष रह जाएगी

महक :

हमारे- तुम्हारे प्यार की

दिल के इसरार की

मन के इकरार की

जो रच- बसकर वातावरण में

छा जाएगी अरसों तक

महकेगी बरसों तक

प्यार तो एक फूल है .....

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2-मैं हूँ ना !

 


भयावह आँधी

प्रबल झंझावात

उखड़ते महावृक्ष

विपथगा महानदियाँ

घनघोर अँधेरी रात

श्मशान- सा समाँ

 

वृक्ष के कोटर में डरा- सहमा

चिड़िया का नन्हा बच्चा

डर से काँपता, माँ से बोला :

माँ ! हमारा क्या होगा

 

माँ ने अपने पंखों में

उसे समेटते हुए कहा :

डरो मत, मैं हूँ ना!

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Thursday, May 29, 2025

1467-नौतपा ये आ गया है

 गुंजन अग्रवाल अनहद

 


नौतपा ये आ गया है।

सनसनाती लू चली है।
ताप से जलती गली है।
वैद्य कोई तो बुलाओ।
औषधी इसकी कराओ।
ताप ज्यादा छा गया है।
नौतपा ये आ गया है......

 

सूर्य ऐसे आग उगले।
विह्वल हो उड़ते बगुले।
वृक्ष पंछी प्राण व्याकुल।
हो गई शीतल हवा गुल।
शूल उर में ज्यों गया है। नौतपा ये आ गया है....

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Monday, May 26, 2025

1466

 

रणभेरी-2

डॉ. सुरंगमा यादव

  

धोखा खाते रहने की तो आदत-सी पड़ी हमारी

तभी जागते हैं हम जब नुकसान उठा लेते भारी

हवा के रुख का हम कैसे अनुमान नहीं लगाते हैं

दीपक बुझने से पहले क्यों ओट  नहीं  कर पाते हैं

रहें पीटते खूब लकीरें साँप नहीं मर पागा

मौका मिलते ही वह फिर से अपना फन फैलाएगा

जो मरने पर तुले हुए हैं,उनका क्या ही रोना है

लेकिन निर्दोषों को कब तक अपनी जानें खोना है

आजादी के लिए लड़े जो उनका तो एक  र्म था

मिलकर था खून बहाया,सबको प्यारा राष्ट्र धर्म था

अमिट शृंखला बलिदानों की, तब  थी आजादी पा

पर आजादी के संग  त्रासदी बँटवारे की  आ

कितने बिछड़े, कितने बेघर, जान गँवाई कितनों ने

भाई- भाई अब दुश्मन थे, लूट मचाई अपनों ने

ऐसा हमें मिला पड़ोसी, जिसे कब सद्भाव सुहाया

जिसकी रगों में रात और दिन, सिर्फ़ दुर्भाव समाया

जिन दरबारों में आतंकी आका बनकर फिरते हैं

अपनी बर्बादी का वे नित खुद शपथ पत्र भरते हैं

फौज जहाँ की हत्यारों को, अपना  शीश झुकाती है

उसकी मंशा क्या होगी, बात समझ खुद आती है

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Thursday, May 22, 2025

1465- अन्तरराष्ट्रीय चाय-दिवस 21 मई पर दो कविताएँ

1-चाय चढ़ा/ शशि पाधा

  


घटा घनेरी घिर-घिर आई

मुझे न ठंडी धूप सुहाई

नरम-गरम दोहर ओढ़ा

अरी बहुरिया! चाय चढ़ा

घिस लेना अदरक की फाँकें

दो -दो लौं- इलाची

सूँघ मसाले आ बैठेगी

मुँहबोली वह चमको चाची

पीढ़ी खटिया पास बढ़ा

सौंफ-मुलेठी चाय चढ़ा |

चाय-पकौड़ी का तू जाने

सखी-सहेली  का  है नाता

चटनी हरे पुदीने वाली

धनिया तो है सबको भाता

नकचढ़ा है देवर तेरा

गाढ़े दूध की चाय चढ़ा |

सारा दिन तू खटती फिरती

कुछ अपने मन भी की कर

सब की रीझें पूरी करती

तुझको है अब किसका डर

मन की पोथी खोल, पढ़ा

शक्कर वाली चाय चढ़ा |

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2-चाय: जीवन की  साँझ में घुलती तपिश

डॉ . पूनम चौधरी

 


चाय,

जैसे पहाड़ की ओट से

धीरे-धीरे फिसल रही धूप—

ना बहुत गर्म, ना बहुत तेज, ना धीमी,

बस मन को छू ले उतनी ही।

 

वह पहला घूँ,

सर्दियों की सुबह सी

जिसमें देह काँपती है

पर आत्मा मुस्कराती है।

तपती साँसो में कुछ अनकही-सी

पीर जो घुल रही है

मिठास में

जैसे बारिश के बाद

मिट्टी की गंध

बीते हुए प्रेम को छू जाए।

 

चाय,

बिलकुल वैसी ही है

जैसे एकांत में किसी पुराने मित्र की चुप्पी—

जो बोलती नहीं,

पर साथ निभाती है।

 

पत्तियों की भाप में

कभी पापा का सिर सहलाना छुपा होता है,

कभी माँ की पुरानी रेसिपी,

जिसमें हर उबाल

संघर्षों की लोरी-सा लगता है।

 

यह चाय ही तो है

जो काम के बोझ में तो कभी ऑफिस की भीड़ में

एक कोना बनाती है,

जहाँ हम थोड़ी देर

खुद से मिल पाते हैं,

जैसे बिखरे हुए पत्तों में

कोई रास्ता ढूँढता हुआ हवा का झोंका

एक फूल को छू जाता है।

 

प्रकृति की तरह,

यह हर रूप धरती है—

कभी मसालेदार मानसून,

कभी कड़वी सच्चाई की तरह काली,

कभी दूध-सी कोमल,

तो कभी शक्कर-सी मीठी याद।

 

कभी प्रतीक्षा की घड़ी में

घड़ी की टिक-टिक को रोकने का बहाना,

तो कभी विदाई की बेला में

थामी हुई बातों का अंतिम घूँट।

 

चाय—

ना केवल स्वाद,

बल्कि एक अनकही भाषा,

जिसमें रिश्ते फुसफुसाते हैं,

समय ठहरता है,

और जीवन

अपनी सारी थकान छोड़

एक कप में सिमट आता है।

 

यह चाय मात्र नहीं,

यह एक खूबसूरत पल है—

जिसमें हम

अपना सबसे सच्चा ‘मैं’

गर्म भाप के साथ

अंतस् से बाहर बहने देते हैं।

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Wednesday, May 21, 2025

1464-तुम मिल गए

 

1-चुम्बन का वरदान/ रश्मि विभा त्रिपाठी

 


पलकों के झुरमुट से
एकाकीपन के सूरज की किरन
कभी चमकी
कभी बीते पल की
हवा चली
कभी न सुहाई
कभी लगी भली
दर्द का बादल
छा गया अगले पल
आँखों के आसमान से
आँसू की एक बूँद
कभी
गालों की छत पे
गिरी टप से
ज्यों चुम्बन का वरदान मिला
प्रेम के कठिन तप से
उस बूँद को
पीता रहा
जीता रहा मन का चातक
हुई धक-धक
आज भी
सोच के सहन में लगे
देह के पेड़ की टहनी पर
बहुत देर से बैठा
यादों का पंछी
उड़ गया
काँप गई
रोम- रोम की पत्ती

धमनी में
उठा है ज्वार- भाटा
बेबसी की बाढ़ में
डूबती
साँस छटपटाई है
छाती की धरती डोली है
हर मौसम में
तुम्हारी अनुभूति की कोयलिया
आत्मा की अमराई में
बोली है।

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2-बाहों के बिस्तर पर — रश्मि विभा त्रिपाठी

 

थकन से चूर
तुम्हारी बाहों के
बिस्तर पर
जिस दिन सोई थी
कुछ पल के लिए
तुम्हारे प्यार की पाकीज़गी की
मलमली चादर ओढ़के
उस पल से लेकर
अब तक
तुम्हारे ख़्वाब 
जो देखे हैं मैंने
ओ मेरे अहबाब
इन्हीं से मेरी ज़िन्दगी में 
बरकत है
कोई फर्क नहीं
कि अब उम्र भर
न रहे पास
नींद का असबाब
तुम मिल गए
मुझको मिल गया शबाब

-0-

3-क्षणिकारश्मि विभा त्रिपाठी

1
ये मुहब्बत नहीं
तो फ़िर आप ही कहिए
इसे क्या मानते हैं,
हम रू- ब- रू कभी न हुए
मगर सदियों से
इक दूसरे को जानते हैं!
2
आज खुशियों पे
बंदिश नहीं है
क्योंकि
अब दुख से
मेरी रंजिश नहीं है।
3
मेरी ज़िन्दगी का दीया
बुझाने का है जमाने का पेशा,
नहीं मालूम मैं रश्मि हूँ,
सूरज मेरे पीछे चलता है हमेशा।
4
मायूसी की धूप
या दर्द की बरसात में
दिन- रात मैं
रखती हूँ अपने पास
उम्मीद का छाता
आँखें भीगती नहीं,
मन जल नहीं पाता।
5
ज़िन्दगी के खेत में
पिछली बार बो दिए थे
उम्मीद के बीज
फसल काटकर
साफ कर
छानकर
फटककर
भर दिया कुठला
इस बरस की रोटी का
हल हो गया मसला।
6
होठों पे खिल उठीं
कलियाँ तबस्सुम की नई,
तुम आए
तो ज़िंदगी के सहरा में
बहार आ गई!
7
तेरी याद का सूरज
दिल के फ़लक से
कभी भी ढला नहीं
कहने को दूर हैं हम,
हमारे दरमियान
कोई फासला नहीं!
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