पथ के साथी

Tuesday, October 24, 2023

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छलिया सपने

 सविता अग्रवाल 'सवि'

 

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

बंद नयन के द्वारों पर

क्यों दस्तक देकर आते हो ?

साकार नहीं होना होता

तो क्यों नयनों में सजते हो?

तुम कौन देश से आते हो?

और कौन दिशा को जाते हो?

छलिया बन मुझको छलते हो

परदेसी बन चल देते हो

मेरी नींदों को मित्र बना

मुझसे ही शत्रुता करते हो

बालक को लालच देते हो

फिर छीन सभी कुछ लेते हो

मन में मेरे एक दीप जला

क्यों आँधी बन आ जाते हो

उषा की किरणों में मिल कर

क्यों धूमिल से हो जाते हो  

शबनम की बूँदों की भांति

क्यों मिट्टी में सो जाते हो

मन मेरे में एक आस जगा

नव ऊर्जा सी भर देते हो

 

 पल भर में क्यूँ शैतान से तुम

 

मुझे चेतनाहीन बनाते हो

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

छलिया सपनों संग रोज़ रात

मैं यूँ ही झगड़ा करती हूँ |

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6 comments:

  1. वाह! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, सच मे सपने छलिया ही होते हैं , नए नए रूप में आकर कभी सुकून दे जाते है और कभी ले जाते हैं। बहुत बहुत बधाई सविता जी!

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। बधाई सविता जी। सुदर्शन रत्नाकर

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  3. बहुत सुंदर रचना...हार्दिक बधाई सविता जी।

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  4. सर्वप्रथम भाई कम्बोज जी का हृदय से धन्यवाद । मेरी कविता को प्रकाशित करने के लिए। प्रिय प्रीति, सुदर्शन जी और कृष्णा जी आपकी प्रतिक्रिया से मन में उमंग भर जाती है । आप सभी का हार्दिक आभार। सविता अग्रवाल”सवि”

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  5. सुंदर एहसास

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  6. बहुत सुन्दर रचना, बधाई.

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