प्रॉ. विनीत मोहन औदिच्य
प्रेम रंगो से सजाओ, आज अपने गेह
को
यह वचन है मैं सहेजूँगा, तुम्हारे
नेह को
स्वप्न जो अँखियो ने देखे, मैं
उन्हें पूरा करूँगा
मैं तुम्हारी माँग को भी,
शुभ्र तारों से भरूँगा।
तीक्ष्ण वाणों से नयन के, है
हृदय यह बिद्ध मेरा
रतजगा करते हुए ही नित्य होता है सवेरा
कंठ कोकिल से कभी जब, राग स्वर
में फूटता
मुग्ध रह जाता है मन ये, तन कहीं पर
छूटता ।
मैं भ्रमर बन स्निग्ध तेरे रूप का रसपान करता
और विरह की वेदना में, डूबकर मैं
आह भरता
हृद ये धड़के धौंकनी-सा, मंद हर पग चाप सुनकर
और मैं होता प्रफुल्लित, इन्द्रधनुषी
स्वप्न बुनकर।
प्रीति की मधु यामिनी में, है
अनंतिम चाह मेरी।
मैं सदा सुमनित करूँगा , कामना की
राह तेरी।।
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सागर, मध्यप्रदेश
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अतिसुंदर भावपूर्ण सृजन सर 🌹🙏
ReplyDeleteसुंदर सृजन
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