अर्चना राय
1
पुरुष के लिए
सफलता की सीढ़ी
बन जाती है...
वहीं...
प्रेम में पड़ा पुरुष
सफल होती स्त्री के पैरों की
बेड़ी बन जाता है...
कलम हाथ में
लेते ही..
स्त्री और पुरुष
का अंतर...
भूल केवल अपना
साहित्य धर्म
निभाती हूँ....
हर तरफ...
आदमी ही आदमी
मगर आदमियत
नदारद- सी है....
हर तरफ शोर ही शोर
बिखरा कोलाहल है
फिर भी न जाने क्यों
तन्हा- सा दिखता
हर आदमी है...
-0-
4- आखिर क्यों?
महज
चार मंत्रों और
अग्नि
के कुछ चक्कर
लगा
लेने भर से...
एक
स्त्री,
...
पुरुष
के लिए
एक
इन्सान से....
उपयोगी
वस्तु में
बदल
जाती हैं...
तो
फिर पुरुष भी
स्त्री
के लिए
कोई
वस्तु क्यों नहीं बनता?
जबकि
उसने भी तो
साथ
ही चक्कर लगाए हैं...
अग्नि
के इर्दगिर्द....
स्त्री
के पल्लू से बँधकर...
पुरुष-सत्ता की मानसिकता की अभिव्यंजक सशक्त कविताएँ,प्रथम कविता बेहद प्रभावी।बधाई अर्चना राय जी।
ReplyDeleteसराहना के लिए हृदय से आभार आदरणीय
Deleteबहुत ही सुंदर 🙏
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteसुंदर रचनाएं, हार्दिक बधाई आपको
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteस्त्री पुरुष के अंतर के द्वन्द में उलझी सुंदर कविता है । हार्दिक बधाई। सविता अग्रवाल “ सवि”
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर रचनाएँ।हार्दिक बधाई आपको।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteवाह, लाजवाब अभिव्यक्ति
ReplyDeleteपुरुष वर्ग की मानसिकता का सुंदर विश्लेषण करतीं उम्दा कविताएँ। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteआभार आपका
ReplyDeleteअर्चना जी आपकी दोनों रचनाएं पढकर मुझे ऐसा लगा कि पुरुष है किस धातु का बना हुआ प्राणी है | स्त्री पुरुष दोनों ही भगवान के बनाए हुए हैं किन्तु यह भिन्नता क्यों ? आपने मेरी आँखें खोल दीं |बहुत ही सत्य और हृदय स्पर्शी ! श्याम हिन्दी चेतना
ReplyDeleteआदरणीय आपकी टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा.... आपकी सराहना निसंदेह मेरे लिए उत्प्रेरक की तरह है.जो और गहनता से साहित्य धर्म निभाने मुझे प्रेरित कर रही है... धन्यवाद आपका....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ...हार्दिक बधाई।
ReplyDelete'आखिर क्यों' के सवाल तो शायद हर स्त्री के मन को मथते होंगे, उन्हें ख़ूबसूरती से प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई | क्षणिकाएँ भी बहुत अच्छी हैं , बधाई
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