युद्धभूमि में अगर रक्त गिरे
धर्म-युद्ध में कोई अशक्त गिरे
फिर तोड़ फेंकना मेरे शस्त्र
नहीं लेना कोई प्रतिकार मुझे
हाँ!अपनी हार स्वीकार मुझे।
नहीं बनना कोई सिद्ध मुझे
नहीं करनी युद्ध की
जिद्द मुझे
नहीं देखना बच्चों
के आँखों में नेत्रजल
नहीं सुननी विधवाओं
की चीत्कार मुझे
हाँ! अपनी हार स्वीकार मुझे।
अब मुझसे स्नेह की बात करो
हिंसा पर प्रेम से आघात करो
सौंप दिए कवच-कुंडल इंद्र को
त्याग गया अब तो अहंकार मुझे
हाँ! अपनी हार स्वीकार मुझे।
गिरे हुए घरौंदे रोते
पक्षी रात भर नहीं सोते
छोड़ दो ये युद्ध की जिद्द
बार-बार समझाती बयार मुझे
हाँ! अपनी हार स्वीकार मुझे।
लहू की नदियाँ बहती देखी
प्रकृति अकेले रोती देखी
देखे ज्यों युद्ध के वीभत्स दृश्य
फिर माँगे प्रेम, हृदय पुकार मुझे
हाँ! अपनी हार स्वीकार मुझे।
ना मैं कोई दुर्योधन मूर्ख
ना मैं कोई कुंती-पुत्र
भरनी है, हार स्वीकार कर
हृदयों के मध्य दरार मुझे
हाँ! अपनी हार स्वीकार मुझे।
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वाहह! अति सुंदर...!!! जीवन दर्शन से परिपूर्ण यह रचना अत्यंत ही उत्कृष्ट है 🙏🌹🌹🌹🙏
ReplyDeleteवाह कपिल जी ! बहुत ही खूबसूरत रचना ,हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, संदेशपूर्ण , प्रतीकात्मक रचना। हार्दिक बधाई।।----परमजीत कौर 'रीत'
ReplyDeleteमेरी कविता प्रकाशित करने के लिए संपादक द्वय का हार्दिक आभार!
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई कपिल कुमार जी। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
अति सुंदर विषय पर बहुत सुंदर रचन्व। बधाई
ReplyDeleteवाह ! कपिल जी युद्ध भूमि की बहुत शानदार कविता । हार को स्वीकार करना
ReplyDeleteएक सच्चे योद्धा की निशानी है । हार्दिक बधाई संदेशात्मक - प्रेरक कविता के लिये ।
बहुत सुंदर प्रेरक कविता।हार्दिक बधाई कपिल जी।
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली और सशक्त कविता, बधाई कपिल जी.
ReplyDeleteकाश ! युद्ध करने वाले सोचें ये तो क्यों इतना दुखद परिणाम देखने को मिले...| एक सार्थक रचना के लिए बहुत बधाई
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