पथ के साथी

Friday, November 19, 2021

1156

 1-हरभगवान चावला

 संताप

 

कभी घरों में

बहुत सारी खूँटियाँ रहती थीं

हम उन खूँटियों पर

कपड़ों के साथ टाँग देते थे

अपने संताप

दीवारों से खूँटियाँ ग़ायब हुईं

ख़ूबसूरत दिखने लगे दीवारों के चेहरे

संताप चुपचाप खूँटियों से उतरकर

हमारे तकियों के नीचे आ बसा।

-0-

2-राजा

1.

राजा बनने के बाद

मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता

और न ही अपना बस चलते

किसी को मनुष्य बना रहने देता है।

2.

राजा नहीं चाहता

कि तुम्हारे हाथों में

सिवाय रेखाओं के कुछ भी हो।

3.

राजा किसी का सगा नहीं होता

कभी वह तुम्हें अपना मित्र कहे

तो डरो कि कुछ अघट न घटे।

4.

राजा के पास अदेखी तलवार होती है

वह चाहे तो इस तलवार से

तालाब का पानी भी चीर सकता है।

5

मैं हिरण

किसी दिन कोई बाघ

अपना आहार बना लेगा मुझे

जंगल के क़ानून ने

बाघों को

हिरणों की बोटी-बोटी नोच लेने का

अधिकार दिया है

पर किसी बाघ को

यह नसीहत देने का अधिकार

मैंने नहीं दिया है

कि मुझे कैसे कुलाँचें भरनी हैं

कि मुझे कौन सी घास चरनी है

कि मुझे किस पोखर का पानी पीना है

कि जब तक ज़िंदा हूँ, मुझे कैसे जीना है ।

-0-

3-देश अभी मरा नहीं

 

हज़ारों पेड़ थे 

वे थे,

सो हरियाली थी

छाया थी

बारिश थी

साफ़ हवा थी

और पक्षी थे अपने बच्चों के साथ

पेड़ों की एक ख़ुशहाल दुनिया थी

इस दुनिया में बहुत से लोग शामिल थे

बहुत से लोग इस दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे

उनके लिए सृष्टि की हर चीज़ उनके सुख के लिए ही थी 

पेड़ भी उनके लिए विलास और विकास की वस्तु थे

जिन्हें कभी भी मज़े के लिए क़ुरबान किया जा सकता था

बुलेट ट्रेन की शक्ल में राजधानी से

विलास की पीठ पर लदा विकास

बहुत तेज़ गति से दौड़ता हुआ आ रहा था

पेड़ों की क्या मज़ाल कि उसका रास्ता रोकें

पेड़ों को कटना ही था, सो कटने लगे

पेड़ जिनके लिए ज़िंदगी का पर्याय थे

वे लोग आए ज़िंदगी को बचाने

पेड़ कटते रहे, लोग पिटते रहे

अन्ततः दूर कर दी गईं

विकास के रास्ते की सारी बाधाएँ

कुछ युवा पेड़ों की लाशों पर 

सर पटकते हुए विलाप कर रहे हैं

कि जैसे कह रहे हों-

क्षमा कि हम रोक नहीं पाए

तुम्हारा क़त्ल, हम मर भी नहीं पाए तुम्हारे साथ

रोते हुए ये युवा ही तय करेंगे मरते हुए देश का भविष्य

अभी बस इतनी तसल्ली है कि देश अभी मरा नहीं ।

-0-

2-दिनेश चन्द्र पाण्डेय

 क्षणिकाएं

1.

फ्रंट से आया

बेटे का सामान

माँ नें हाथ फिरा

ऐसे दुलारा जैसे बेटा

खुद लौट आया हो.

2.

झुलसाती दोपहर

बनते भवन की छाया में

पल भर को

तसला परे रख

उसने सोचा...

कितना अच्छा होता

यदि संतुलित होते मौसम

गर्मियों में न अधिक गर्मी

सर्दियों में न अधिक सर्दी

बारिश भी नाप तोल कर आती.

3.

बह रही जीवन नदी से

भरी थी मैंने भी

 दो लोटे पानी से

  अपनी गागर

  रीती जा रही गागर

  बहती जा रही नदी.

4.

खिलने के पहले ही

तोड़ लिये गुच्छों में

सुर्ख पुष्प

धूप में सुखाया

फिर आग पर  

तब कहीं जाकर

 लौंग कली की

 फैली सुगंध

5.

वर्षा ख़त्म करने का

बादल भगाने का

सीधा सरल उपाय

वृक्ष काट दो

6.

पहाड़ पर घूमता बाघ

उसके हर दौरे के बाद

चरवाहे की भेड़

गिनती में कम हो जातीं

बढ़ता जाता बाघ के

मुँह पर लगा खून

7.

रात को गिरती बर्फ़

सो रहा सर्द पहाड़

एक घर से चीख उठी

कुछ बल्ब जले

स्त्री पुरुषों की भाग दौड़

सुगबुगाहट शुरू

फिर........

नवजात चीख़ से जागा पहाड़

8.

शाम को थका हुआ

 मैं घर आया.

 वो गोद में आकर

  जीभ से मेरी

 थकान उतारता गया.

9.

पहाड़ की नारी

गोरु-बाछ, चारा लकड़ी

कनस्तरों पानी, खाना

 फिर भी....

अधूरा पड़ा है काम

अस्ताचल की ओर

भागते रवि को तरेरती

आँखों आँखों में डांटती

10.

शाम के साथ

श्रमिक कंधे पर

कुठार सँभालते

घर को चले

पेड़ों ने भी खैर मनाई

सुबह होने तक

-0-

11 comments:

  1. यथार्थ के तल्ख अनुभव कराती कविता और क्षणिकाएं ,दोनों रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  2. माननीय संपादक गण को रचना प्रकाशन हेतु सादर आभार. आदरणीय भीकम सिंह सर को प्रोत्साहन अभ्युक्तियों हेतु सादर आभार.

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  3. बहुत सुंदर रचनाएँ, विशेषतः संताप, मैं हिरन, खिलने से पहले ही, शाम के साथ....

    दोनों रचनाकारों को शुभकामनाएँ!

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  4. सभी रचनाएँ सुन्दर
    संताप हिरण और फ्रंट से आया ... बहुत ही सुन्दर
    चावला जी एवं दिनेश जी को हार्दिक बधाइयाँ

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  5. बहुत ही सुन्दर रचनाएँ।

    हार्दिक बधाई आप दोनों को।

    सादर

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  6. सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर...आप दोनों को हार्दिक बधाई।

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  7. सभी रचनाएँ मानो दिल की गहराईयों तक उतर गई, हार्दिक बधाई आप दोनों को

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  8. सभी रचनाएँ बहुत सुंदर। हार्दिक बधाई आप दोनों रचनाकारों को।

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  9. दोनो रचनाकारों की सुंदर रचनाएँ हैं । हार्दिक बधाई स्वीकारें।

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  10. बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण क्षणिकाएँ! दोनो रचनाकारों को हार्दिक बधाई!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  11. दीवारों से खूँटियाँ ग़ायब हुईं
    ख़ूबसूरत दिखने लगे दीवारों के चेहरे
    संताप चुपचाप खूँटियों से उतरकर
    हमारे तकियों के नीचे आ बसा।

    गज़ब। बाघ और हिरण के दृष्टांत से कवि की लेखनी ने सांसारिक व्यवस्थाओं पर कड़ा प्रहार किया है। बहुत बधाई।

    "शाम के साथ
    श्रमिक कंधे पर
    कुठार सँभालते
    घर को चले
    पेड़ों ने भी खैर मनाई
    सुबह होने तक"

    बहुत ही मारक प्रहार। अन्य क्षणिकाएँ भी बहुत सुंदर। बधाई दिनेश चंद्र पांडेय जी।

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