1-भीकम सिंह
1
नदी, पोखर,कुएँ
सब उजाड़ गई
सरकारी योजना भी
डकार गई
ऋषियों ने बुदबुदाया था
जो जल -
अकड़ और ऐंठ में
उसे बेचकर पेंठ में
हमारी सदी
समुन्दर पे आ गई
।
-0-
2
पेड़
पेड़ों के
पत्ते उजले
सब के
मन में
बसंत पला
।
शाखा ने
पुष्प सौंपा
खुशबू भरा
मुस्कानों में मुँह छिपाए
फूला- फला
।
3
उपेक्षा के दर्द को
कहे
, तो कैसे
वृद्धाश्रम
में बैठा
एक व्यक्ति
कर रहा प्रयास
।
उसके खुले-से होंठ
रुक जाते
आँखें उनीदीं-सी
बन्द हो जातीं
अनायास
।
फिर शुरू करता
झुरियाँ काँपतीं
आँखें कुछ भाँपतीं
बात का सिरा छोड़ देता
मुँह का आवास।
चुप्पी के दौरान
ढुलक पड़ते जो
अश्रु के
कण
कह रहे होते
पिछला इतिहास
।
फिर लेती हिलोरें
घर की यादें
अब भी कंधों पर
उनको लादें
करता उपहास ।
वृद्धाश्रम
में बैठा ।
2-परमजीत कौर' रीत'
1
दिल की हो दिल से एक मुलाकात चाय पर
आए यूँ कोई शाम, बने बात चाय पर
मसलों का हल या कर सकें बातें जहान की
मिलते हैं कम ही ऐसे तो लम्हात चाय पर
बजते हैं घुँघरू जब भी याँ पुरवा के पाँव
में
गाती है गीत, यादों की बारात चाय पर
थोड़ी शरारतों या कि नाराज़गी में दोस्त!
कितने ही रंग बदलते थे ज़ज़्बात चाय पर
आकर वबा ने इनको भी सबसे जुदा किया
तन्हा से हो गए हैं अब दिन-रात चाय पर
इक रोज़ मिलके बैठे जो ग़म और खुशी तो 'रीत!
होंगे कई
जवाब-सवालात चाय पर ।
2
बस हवा की मुहर बकाया है
ज़र्द पत्तों में डर बकाया है
आबले पूछते हैं पाँवों से
और कितना सफ़र बकाया है
वक्त पड़ने पे है पता चलता
किसमें क्या-क्या हुनर बकाया है
क्या अना के गणित का हासिल ये
हम बटा मैं, सिफ़र बकाया है
नामवर! साँसें रोक हैं रक्खी
बोल भी, जो ख़बर बकाया है
याद रख 'रीत' इस जहाँ का हिसाब
देना क़ामिल के घर बकाया है
3
बेशक़ पुकारिए इसे बुज़दिल के नाम से
रुह काँपती जो अब किसी महफ़िल के नाम से
यूँ फैसलों में दिल रहा हावी दिमाग पर
मशहूर हूँ लेकिन यहाँ बेदिल के नाम से
मक़तल से कितना और ऐ बुत दिल लगाएगा?
खाता है सौंह अब भी तू
क़ातिल के नाम से?
शिकवा नहीं है दर्द न तल्ख़ी है दोस्तो!
रुसवा किया है वक्त ने ग़ाफ़िल के नाम से
उसने ग़ुबार-ए-दिल-ए-समंदर 'सहा' तभी
उसको पुकारते हैं न 'साहिल' के नाम से?
जब इल्म ढाई अक्षरों का 'रीत' को नहीं
आएगा
कैसे ख़त किसी ज़ाहिल के नाम से
-0-
3- रश्मि
विभा त्रिपाठी
मन के द्वार
मन के द्वार
मुद्दतें हुईं तुमसे बिछड़े
पल की दहलीज पर खड़े
हम थे जिद पर अड़े
तुम्हारी प्रतीक्षा में
प्रेम- परीक्षा में
दिन कटते थे
केवल
स्मृतियों की समीक्षा में
मैंने हर क्षण तुम्हें पुकारा
ले मौन का सहारा
विश्वास था अटूट
कि तुम सुनोगे
भावों की अनुगूँज
चिर स्नेह से गूँथ
एक माला
तुम्हारे लिए
ले बैठी मन के द्वार
आशा के फूल हजार
मुकुलित हुए
तुम उपस्थित हुए
मेरे सामने
बरसों के बाद
अहा!
स्वप्न हुए आबाद
आओ प्रिय
करें हम यह वादा
अभिलाषाओं से ज्यादा
जिएँगे संग जीभर
बाँटेंगे सुख दु:ख का
हम हर हिस्सा आधा- आधा।
-0-
आबले पूछते हैं पाँवों से••••बेहतरीन गज़ल और मन के द्वार••बेहतरीन कविता, दोनों रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteडॉ. भीकम सिंह जी की कविताएँ अलग ही प्रभाव छोड़ती हैं,सोचने पर विवश करती हैं,वहीं परमजीत 'रीत'की ग़ज़लें और रश्मि विभा त्रिपाठी जी की कविता भी सहज ढंग से अपनी बात कह रही हैं।सभी को बधाई।
ReplyDeleteसुंदर सटीक प्रभावित करती रचनाएँ... डॉ. भीकम सिंह जी, परमजीत जी, रश्मि विभा त्रिपाठी जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह । भीकम जी की पेड़ और जल पर रची रचनाएँ , परमजीत जी और रश्मि जी की सहज और सरल कविताएओं ने प्रभावित किया है । आप तीनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteजल व पेड़ पर प्रभावशाली रचनाओं एवं मन के द्वार भावपूर्ण सृजन के लिए आप दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसभी प्रतिक्रियाओं के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।
मेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए सहज साहित्य का हार्दिक आभार।
-परमजीत कौर रीत
नदी, पोखर ...
ReplyDeleteपेड़ ...
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण रचना!
उपेक्षा का दर्द ...
मार्मिक!
आदरणीय डॉ भीकम सिंह जी को हार्दिक बधाई।
आदरणीया परमजीत कौर रीत जी को सुन्दर सृजन की बहुत-बहुत बधाई।
आप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी का हृदय तल से आभार।
सम्पादक जी का हार्दिक आभार।
सादर
मेरी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए सहज साहित्य और पसन्द करने के लिए आप सभी का धन्यवाद, हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचनाएँ... डॉ.भीकम सिंह जी,परमजीत जी एवँ रश्मि विभा त्रिपाठी जी को हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteआप तीनों की रचनाएँ ज़िंदगी के अलग-अलग भावों को उकेरते हुए मन को छूती हैं | आप तीनों को बहुत बधाई |
ReplyDeleteवाह बहुत ही उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteयहां आकर अच्छा लगा!