1-हाँ मैं
नारी हूँ!
डॉ सुरंगमा यादव
हाँ मैं नारी हूँ!
सजाऊँगी सँवारूँगी
तेरा घर
बंदिनी होकर नहीं;
पर संगिनी बन
चाहती हूँ प्यार की छत,
पर सदियों से
जिस आसमाँ पर
तू काबिज है
उस पर भी हिस्सेदारी
चाहती हूँ ।
बरसों से तुझे मैं
सुनती आई हूँ
अब मगर
कुछ मैं भी कहना चाहती हूँ
तेरी तरक्की पर
मन प्राण वारूँगी!
हाँ मगर कुछ मैं भी
करना चाहती हूँ
इससे पहले
हसरतें उन्माद बन जाएँ
खुद को मौका देना चाहती हूँ ।
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2-आँखें
-मंजूषा मन
तुमने आँखें तरेरीं
मैंने झुका लीं आँखें
जब तुमने दिखाईं आँखें
आँखें उठाने का साहस
खो गया मेरा,
तुम्हारी लाल आँखें देख
आँखें पड़ीं मुझे
बचने के लिए
आँख के सामने होने पर
तुम्हारी आँखों में खटकी मैं
मैंने बिछाईं आँखें
तुम खेलते रहे
आँख मिचोली,
मेरी डबडबाई आँखें
न देख सके तुम
और फेर लीं आँखें
मेरे इतर खूब सेकीं आँखें
धूल झोंक मेरी आँखों में
मैंने रखा तुम्हें आँखों में
पड़ा रहा पर्दा आँखों पर
पता नहीं चला
आँख का काँटा कब हुई मैं,
तुम्हें तो आँखों पर बैठाया
तुम्हारी आँखों से बरसे
अंगारे
आँखें पथरा
गईं मेरी
मूँद लीं
मैंने आँखें।
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3-एक माँ छुटी
संध्या झा
एक माँ के लिए ,एक माँ छुटी
एक माँ के लिए, एक माँ ने दी कुर्बानी है ।
ऐ भारत माँ तेरे लिए कितनी
माँओं ने
अपनी आँखों में सजाए पानी हैं ।
वो लाल मेरा एक योद्धा सा
दुश्मन को चीर गया होगा ।
ऐ भारत माँ
तेरी धरती पर
शत्रु को उसने
पैर ना धरने दिया होगा ।
तेरी आन
का मेरी मान का
भार
उसके कंधों पर रहा होगा ।
इन
दोनों की खातिर वो तो
अकेला ही हजारों से लड़ा
होगा ।
जब सब
ने मिलकर घेरा होगा
सोचा
होगा कि वो डर जाएगा ।
एक सिंहिनी का पुत्र था वो
श्वानों से
कैसे हार जाएगा ।
शूरवीरता उसकी देखने को
देवता भी उतर आए होंगे
जब उसने
अंतिम साँसें ली होंगी
सुमन
उसके कदमों में चढ़ाए होंगे ।
विजय परचम जब उसने फहराया
होगा
तो खून
से वो नहाया होगा ।
तेरी मिट्टी में जब वो गिरा
होगा
तेरी मिट्टी चूम रहा होगा।
वो मरा नहीं अमर है वो
तेरी
मिट्टी में मिल कर अजर है वो
ऐ भारत माँ तू एक बार जो
बुलाएगी
तो ना
जाने कितनी माँएँ उत्साह से ।
पानी
फिर से आंखों में सजाएगी ।।
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तन्हा तन्हा/ अनिल श्रीवास्तव 'मुसाफ़िर'
जब याद अतीत की आती है,
जब रात क्षितिज पर छाती है,
जब शबनम आँसू बन जाते हैं,
तब मैं तन्हा तन्हा रो लेता हूँ.
जब खामोशी शोर मचाती है,
जब सबा बदन को जलाती है,
जब बिछड़ों की याद आती है,
तब मैं तन्हा- तन्हा रो लेता हूँ.
जब बात विदित हो जाती है,
जब सत्य कथित हो जाता है,
जब रिश्ते कुंठित हो जाते हैं,
तब मैं तन्हा -तन्हा रो लेता हूँ.
जब होठों का कंपन याद आता है,
जब चंचल चितवन याद आते हैं,
तब गुज़रा ठिकाना याद आता है,
मैं तन्हा- तन्हा उन में खो जाता हूँ.
अब बात समझ में आती है,
हम सब रंगमंच के साथी हैं,
अभिनय करके घर जाना है,
यह सोच सोच हँस देता हूँ.
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सुन्दर अभिव्यक्तियां
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कविता,आंखे मंजूषाजी की।
ReplyDeleteअब बात समझ में आती है ,सब रंगमंच के साथी हैं -बहुत ही सुंदर -सत्य
ReplyDeleteपुष्पा मेहरा
सभी कविताओं में बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर तथा भावपूर्ण सृजन के लिए आप सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुरंगमा जी, मंजूषा जी, संध्या जी, अनिल श्रीवास्तव जी आप सभी की रचनाएं सुन्दर लगी। बधाई सृजन की।
ReplyDeleteवाह! एक से बढ़कर एक सुंदर कविताएँ!पढ़कर बहुत आनन्द आया।
ReplyDeleteअनिल जी, सुरँगमा जी, मंजूषा जी और संध्या जी, मेरी ओर से बधाई स्वीकारें!
वाह।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण।
आदरणीय अनिल जी आदरणीया सुरंगमा जी, मंजूषा जी एवं संध्या जी को हार्दिक बधाई।
सादर
बहुत सुंदर रचनाएँ अनिल जी, सुरँगमा जी एवं संध्या जी
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
मेरी कविता पसन्द करने और मेरे सराह कर मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार
ReplyDeleteआआपक स्नेह सदैव बना रहे
सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक!
ReplyDeleteआ. अनिल जी, सुरंगमा जी,मंजूषा जी एवं सन्ध्या जी...आप सभी को हार्दिक बधाई!
~सादर
अनिता ललित
दिल से निकले शब्द दिल तक ही पहुँचते हैं, बहुत भावपूर्ण रचनाएँ हैं, आप सभी मेरी बधाई स्वीकारें |
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