छह कविताएँ
शब्द बहेंगे मेरी लेखनी से,
भाव उमड़कर बह गए
पर पन्ना पड़ा है रीता रे.....!
2.
न कल की परछाई
न कल के स्वप्न
जी लूँ, जीभर
आज हो मगन!
3-कविता-पल पल
पल पल सँजोकर बनाया,
सज-सजकर गुदगुदाया।
पल-पल में टूटी माया,
खो खो कर तो था पाया।
चुन-चुन बिछड़ी साँसों ने,
कुछ-कुछ ये समझाया।
रखा जो वो जड़ था,
जीवन यूँ क्यों गँवाया ।
चलूँ बचे पल लेकर,
साधूँ , जो नष्ट कर आया!
-0-
मनोज मिश्रा
परिचय : बंगाल में बचपन, दिल्ली में युवावस्था और बाक़ी समय अमेरिका में बीता । गणित में स्नातक, संगणक शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन । सूचना प्रौद्योगिकी निर्देशक पद पर कार्यरत । कविता पाठ करने का बालपन से शौक़ रहा है । यदा -कदा लिखने का भी प्रयास करता रहा । अब बंधुगण का प्रोत्साहन मिला है, तो विचारों को लयबद्ध करने का प्रयास है।
पता - 12207 Meadowstream Ct, Herndon. VA.
ईमेल: midasmishra@gmail.com
1-मनोज मिश्रा
क्षणिकाएँ
1.
मैं बैठ प्रतीक्षा करता
1.
मैं बैठ प्रतीक्षा करता
शब्द बहेंगे मेरी लेखनी से,
भाव उमड़कर बह गए
पर पन्ना पड़ा है रीता रे.....!
2.
न कल की परछाई
न कल के स्वप्न
जी लूँ, जीभर
आज हो मगन!
3-कविता-पल पल
पल पल सँजोकर बनाया,
सज-सजकर गुदगुदाया।
पल-पल में टूटी माया,
खो खो कर तो था पाया।
चुन-चुन बिछड़ी साँसों ने,
कुछ-कुछ ये समझाया।
रखा जो वो जड़ था,
जीवन यूँ क्यों गँवाया ।
चलूँ बचे पल लेकर,
साधूँ , जो नष्ट कर आया!
-0-
मनोज मिश्रा
परिचय : बंगाल में बचपन, दिल्ली में युवावस्था और बाक़ी समय अमेरिका में बीता । गणित में स्नातक, संगणक शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन । सूचना प्रौद्योगिकी निर्देशक पद पर कार्यरत । कविता पाठ करने का बालपन से शौक़ रहा है । यदा -कदा लिखने का भी प्रयास करता रहा । अब बंधुगण का प्रोत्साहन मिला है, तो विचारों को लयबद्ध करने का प्रयास है।
पता - 12207 Meadowstream Ct, Herndon. VA.
ईमेल: midasmishra@gmail.com
-0-
2-प्रीति अग्रवाल
1- फिर वही
वही खिड़की
वही कुर्सी
वही इलायची वाली चाय
वही पसन्दीदा कप
वही थकन
वही सवाल
और वही जवाब !
उफ्फ!
ये बेहिसाब ज़िम्मेदारियाँ!
लाइन लगाकर
हमेशा तैनात,
जाने कब खत्म होंगी...
जाने कब सब बड़े होंगे...
जाने कब मुझे छुट्टी मिलेगी...??
और फिर,
वही उदास ख्याल-
धीरे धीरे
सब अपने अपने
पथ पर चल देंगे...
मैं अकेली हो जाऊँगी...
जीवन सन्ध्या के
गहराते अँधेरे में
क्या करूँगी
अपनी क्षीण होती
शक्ति से....
सारी सीमाएँ
सिमट जाएँगी.......!
और एक बार फिर,
चाय की अंतिम चुस्की का
वही जादू-भरा
जोशीला सुझाव-
मैं क्या करुँगी?
खूब आराम करूँगी !!
कोई काम न होगा
कोई बंदिश न होगी
कोई भागम-भागी न होगी...
बस मैं,
और मेरी कलम...,
काग़ज़, कैनवस
और रंग...!
हाँ, और वही खिड़की
वही आराम कुर्सी
इलायची वाली चाय
और पसन्दीदा कप भी...,
बहुत मज़ा आएगा
है न!!
2- मुखौटा
वही कुर्सी
वही इलायची वाली चाय
वही पसन्दीदा कप
वही थकन
वही सवाल
और वही जवाब !
उफ्फ!
ये बेहिसाब ज़िम्मेदारियाँ!
लाइन लगाकर
हमेशा तैनात,
जाने कब खत्म होंगी...
जाने कब सब बड़े होंगे...
जाने कब मुझे छुट्टी मिलेगी...??
और फिर,
वही उदास ख्याल-
धीरे धीरे
सब अपने अपने
पथ पर चल देंगे...
मैं अकेली हो जाऊँगी...
जीवन सन्ध्या के
गहराते अँधेरे में
क्या करूँगी
अपनी क्षीण होती
शक्ति से....
सारी सीमाएँ
सिमट जाएँगी.......!
और एक बार फिर,
चाय की अंतिम चुस्की का
वही जादू-भरा
जोशीला सुझाव-
मैं क्या करुँगी?
खूब आराम करूँगी !!
कोई काम न होगा
कोई बंदिश न होगी
कोई भागम-भागी न होगी...
बस मैं,
और मेरी कलम...,
काग़ज़, कैनवस
और रंग...!
हाँ, और वही खिड़की
वही आराम कुर्सी
इलायची वाली चाय
और पसन्दीदा कप भी...,
बहुत मज़ा आएगा
है न!!
2- मुखौटा
ख़याल रखो इनका,
ये जो हर पल
हँसते हैं
मुस्कुराते हैं...,
जाने किस ग़म में
तिल- तिल,
घुले जाते हैं....।
कह दो इनसे,
यूँ ज़रूरी नहीं है
हर पल खुश दिखना,
अच्छा होता है
सेहत के लिए
रो लेना भी कभी कभार !!
ये जो हर पल
हँसते हैं
मुस्कुराते हैं...,
जाने किस ग़म में
तिल- तिल,
घुले जाते हैं....।
कह दो इनसे,
यूँ ज़रूरी नहीं है
हर पल खुश दिखना,
अच्छा होता है
सेहत के लिए
रो लेना भी कभी कभार !!
-0-
3-
कटघरा
जाने क्यों और कैसे
रोज़ ही अपने को
कटघरे में खड़ा पाती,
वही वकील
वही जज
और वही
बेतुके सवाल होते,
मेरे पास
न कोई सबूत
और न गवाह होते,
कुछ देर छटपटाकर
चुप हो जाती,
मेरी चुप्पी
मुझे गुनहगार ठहराती,
वकील और जज
दोनों हाथ मिलाते,
मैं थककर लौट आती
अपने घर को समेटने में
फिर से लग जाती...!!
सिलसिला चलता रहा...
फिर एक दिन
न जाने क्या हुआ
बहुत थक गई थी शायद....
ज़िन्दगी से नहीं
उसकी कचहरी से,
सोचा-
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो...!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया,
हर काम
डंके की चोट पर
आरंभ कर दिया,
मैं सही करती रही
और वही करती रही
जो मन भाया,
और वक्त.…..
वह मेरी गवाही
देता चला गया !!
-0-
जाने क्यों और कैसे
रोज़ ही अपने को
कटघरे में खड़ा पाती,
वही वकील
वही जज
और वही
बेतुके सवाल होते,
मेरे पास
न कोई सबूत
और न गवाह होते,
कुछ देर छटपटाकर
चुप हो जाती,
मेरी चुप्पी
मुझे गुनहगार ठहराती,
वकील और जज
दोनों हाथ मिलाते,
मैं थककर लौट आती
अपने घर को समेटने में
फिर से लग जाती...!!
सिलसिला चलता रहा...
फिर एक दिन
न जाने क्या हुआ
बहुत थक गई थी शायद....
ज़िन्दगी से नहीं
उसकी कचहरी से,
सोचा-
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो...!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया,
हर काम
डंके की चोट पर
आरंभ कर दिया,
मैं सही करती रही
और वही करती रही
जो मन भाया,
और वक्त.…..
वह मेरी गवाही
देता चला गया !!
-0-
मैं सही करती रही
ReplyDeleteऔर वही करती रही
जो मन भाया। वाह प्रीति जी बहुत सुंदर बात कही। इसी परिवर्तन की को आवश्यकता है। तीनों कविताएँ बहुत सुंदर भावपूर्ण हैं। बधाई आपको ।
आदरणीय सुदर्शन दी आपके स्नेह के लिए आभार!!
Deleteरखा जो वो जड़ था,
ReplyDeleteजीवन यूँ क्यों गँवाया ।
चलूँ बचे पल लेकर,
साधूँ , जो नष्ट कर आया!
बहुत सुंदर भाव।दोनों क्षणिकाएँ भी बहुत सुंदर हैं।मनोज मिश्रा जी को हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुदर्शन जी, आपका अनुमोदन और प्रोत्साहन नतमस्तक हो ग्रहण कर आपको नमन करता हूँ ।
Deleteआदरणीय काम्बोज भाई साहब, इस सुंदर मंच पर मेरी कविताओं को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार!
ReplyDeleteमनोज मिश्रा जी की कविता पल पल बहुत सुंदर , क्षणिकाएँ भी बेहतरीन, आपको बहुत बहुत बधाई!!
आदरणीय काम्बोज जी, आपका अनुगृहीत हूँ कि आपने मुझे अपने सान्निध्य का अवसर दिया इस मंच पर । प्रीति अग्रवाल जी की रचनायें दृश्यावली में लुभाकर धीरे से अपना संदेश देती है । मनोहारी
Deleteआभार मिश्र जी
Deleteमनोज मिश्रा जी की क्षणिकाएँ अच्छी लगी।
ReplyDeleteआपके प्रोत्साहन का आभारी हूँ अनिता जी !
Deleteयदि मैं कटघरे में खड़े होने से
ReplyDeleteइनकार कर दूँ तो...!वाह
आपका धन्यवाद अनिता जी!!
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteशिवजी श्रीवास्तव02 September, 2020 12:32
ReplyDeleteमनोज मिश्रा जी की क्षणिकाएँ बहुत प्रभावी हैं कविता में भी जीवन व्यर्थ नष्ट करने के दार्शनिक-बोध के साथ ही शेष जीवन को सार्थक व्यतीत करने का संकल्प है--
रखा जो वो जड़ था,
जीवन यूँ क्यों गँवाया ।
चलूँ बचे पल लेकर,
साधूँ , जो नष्ट कर आया!
सुंदर कविता और क्षणिकाओं हेतु मनोज जी को बधाई।
आदरणीय शिवजी, आपकी अनुकंपा का प्रार्थी हूँ । आपके आशीष वचन और कुशाग्र विश्लेषण मुझे प्रेरित करेंगे । नमन ।
Deleteप्रीति अग्रवाल की तीनों कविताएँ स्त्री-विमर्श की सशक्त कविताएँ हैं।स्त्री अपनी भावनाओं एवम आस्थाओं के घेरे में ही कैद है,वह सारे प्रियजनों के लिये जीती है,उनकी खुशियों के लिये समर्पित रहती है,पर अपने एकाकीपन के विचार से उदास होकर अपने सपनों के लिये मार्ग खोलती है(फिर वही),अपने चेहरे पर खुशियों का मुखौटा लगा कर जीती है आंसुओं को छुपा कर रखती है,अंततः अनाम कचहरी से थक कर संकल्प कर ही लेती है--
ReplyDeleteयदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो...!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया,
हर काम
डंके की चोट पर..
ये फैसला महत्वपूर्ण है।तीनो कविताओं हेतु बधाई प्रीति जी।
आदरणीय शिवजी भैया ,आपकी टिप्पणी सदा ही मेरी कविताओं का बहुत सुंदर सार होती हैं,आपका बहुत बहुत आभार!!
Deleteबढ़िया रचना और बहुत सुंदर क्षणिकाएँ...मनोज जी को बहुत बधाई।
ReplyDeleteशानदार रचनाएँ भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए प्रीति जी को हार्दिक बधाई।
बहुत खुशी हुई कि आपको पसंद आई कृष्णा जी,धन्यवाद!
Deleteआपकी सराहना इस नौसिखिये को फिर प्रयास करने की शक्ति देगी, धन्यवाद कृष्णा जी ।
Deleteमनोज जी की सुन्दर क्षणिकाएं बेहद सुन्दर सृजन हैं और प्रीति जी की तीनों कवितायें स्त्री के मन की भावनाओं को दर्शाती हैं "कटघरा" कविता ने मन को झंझोड़ दिया |आपदोनो को हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteआपके स्नेह भरे प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सविता जी!!
Deleteसार्थक और सुन्दर रचनाएँ।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय!!
Deleteधन्यवाद आदरणीय ।
Deleteबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत सृजन के लिए आदरणीय मनोज मिश्रा जी एवं आदरणीया प्रीति जी को हार्दिक बधाई!
सादर!
आपका बहुत बहुत आभार रश्मि जी!!
ReplyDeleteसदय प्रोत्साहन के लिये आभारी आपका सविताजी ।
ReplyDeleteआभार आदरणीय!
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण और सुन्दर रचनाओं के लिए मनोज जी और प्रीति जी को बधाई.
ReplyDeleteजेन्नी जी आपकी सराहना के लिए आभार!!
Deleteमनोज मिश्रा जी की सुन्दर क्षणिकाएं व कविता ।प्रीति जी की कविताओं का भाव प्रवाह देखते ही बनता है, बहुत सुन्दर ।आप दोनों रचनाकारों को बधाई ।
ReplyDeleteआभार सुरँगमा जी, आपकी स्नेहिल टिप्पणी से ही मेरी रचना सजती है, प्रतीक्षा थी!:)
Delete
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचनाएँ !
न कल की परछाई
न कल के स्वप्न
जी लूँ, जी भर
आज हो मगन..
सहजता से कम शब्दों में गहन बात मनोज मिश्र जी !
सोचा-
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो...!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया
बहुत खूब !
नारी की रोज़ की पीड़ा से निकलने का सकरात्मक-समाधान बहुत पसन्द आया प्रिय प्रीति जी,अल्प में अपार परोसा है !
मनोज मिश्रा जी और प्रिय प्रीति जी को हार्दिक बधाई !
ज्योत्स्ना जी आपने इतना समय लगाकर इतनी रुचि से मेरी कविताएँ पढ़ी और सराही, आपका ह्रदय तल से आभार!!
ReplyDeleteअलग अलग भावों को उकेरती ये सभी रचनाएँ बहुत पसंद आईं, मेरी बधाई
ReplyDelete