आओ खेलें गाली- गाली।
डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
लोकतन्त्र का नया खेल है
आओ खेलें गाली -गाली।
भाषा की मर्यादा तोड़ें,
शब्द -वाण जहरीले छोड़ें,
माँ -बहिनों की पावनता के
चुन-चुनकर गुब्बारे फोड़ें।
उनकी सात पुश्त गरियाएँ
अपनी जय-जयकार कराएँ
चतुर मदारी- सा अभिनय कर
गला फाड़ सबको बतलाएँ,
हम हैं सदाचार के पुतले,
प्रतिपक्षी सब बड़े बवाली।
चलो ज़हर की फसल उगाएँ
जाति- धर्म की कसमें खाएँ,
कल- परसो चुनाव होने है,
कैसे भी सत्ता हथियाएँ ,
जनता को फिर से भरमाएँ,
कठपुतली की तरह नचाएँ ,
नंगों के हमाम में चलकर,
ढोल बजाकर ये चिल्लाएँ-
मेरे कपड़े उजले- उजले
उनकी ही चादर है काली।
खेल पसन्द आए तो भइया,
सभी बजाना मिलकर ताली।
-0-2,विवेक विहार,मैनपुरी(उ०प्र०)- 205001
E mail-shivji.sri@gmail.com
आज के हालात पर लिखा सुन्दर गीत |हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteसमसामयिक बहुत सुंदर गीत।बहुत बगुत बधाई
ReplyDeleteबहुत सामयिक और व्यंग्यात्मक रचना बेहद अच्छी लगी...। मेरी बधाई
ReplyDeleteआज के युग के कटु सत्य को प्रस्तुत करता गीत....
ReplyDeleteसुन्दर एवं व्यंग्यात्मक सृजन | हार्दिक बधाइयाँ
आज के दौर पर लिखा और सोचने को मजबूर करता बढ़िया गीत... हार्दिक बधाई आपको !!
ReplyDeleteसमसामयिक सुंदर गीत।
ReplyDeleteसादर
भावना सक्सैना
मेरे कपड़े उजले- उजले
ReplyDeleteउनकी ही चादर है काली।
aaj ke samy ko darshata sunder navgeet
badhayai
rachana
समसामयिक, यथार्थ को दर्शाता बढ़िया गीत!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई डॉ. शिवजी श्रीवास्तव जी!
~सादर
अनिता ललित