1-कर्ण
श्वेता राय
आज युद्ध की इस बेला में, मुझको सत्य बताते हो।
पांडव मेरे रक्त सहोदर, कैसा भ्रम फैलाते हो।
हे केशव! यदि ये सच है तो भी मुझको
स्वीकार नहीं।
समर भूमि से पीछे हटने का मुझको अधिकार
नहीं।
अंधड़ आंधी में तरु शाखा से विगलित मैं
पर्ण बना।
हो कठोर, सुन सूत पुत्र मैं, आज यहाँ ये कर्ण बना।
कैसे कह दूँ कुंती को माँ, राधा को मैं माँ जाना।
बचपन से ही प्रेमिल उसका, आँचल मैंने पहचाना।
पाप समझ कुंती ने त्यागा, राधा ने स्वीकार किया।
मेरे हर आँसू को बढ़कर, उसने अंगीकार किया।
जग के कटु वचनों को सुनकर, सूर्य रश्मि सम स्वर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये
कर्ण बना।
हे कृष्णा! अब ये बतलाएं, उस दिन क्यों वो मौन रहीं।
कृपाचार्य जब रोके तब वो, आ मुझको क्यों नहीं गहीं।
उसदिन दुर्योधन ने मुझको, मान मेरा लौटाया था।
हो हक था मेरा उसदिन, मैंने उस से पाया था।
अंगदेश को पाकर उसदिन, सम्मानित मैं वर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये
कर्ण बना।
कल कुंती आ मुझसे कहतीं, दुर्योधन को छोड़ दो।
पांच पांडवों के बन भ्राता, समर दिशा तुम मोड़ दो।
हे गिरधारी! क्या संभव ये, वार पीठ पर मैं कर दूँ।
सम्मानित इक रिश्ते पर मैं दाग पंक से
मैं मढ़ दूँ ।
मीत मिताई में बोलो कब कोई कहीं विवर्ण
बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं,आज यहाँ ये कर्ण बना।
हे वनवारी! सत की महिमा, युद्ध अंत का तुम जानो।
क्या होगा अगले क्षण में ये भली भांति
तुम पहचानो।
यदि कल समरांगण में मेरा वध संभव हो पाता
है।
या अर्जुन का सिर में सम्मुख आकर गिर
जाता है।
होंगें पांडव पांच सदा ही,मत इसको अब अर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये
कर्ण बना।
सुन बातें सब कर्ण कृष्ण नत अपना शीश
झुकाते हैं।
कहते जग में तुमसा कोई, मित्र कहाँ सब पाते हैं।
दुर्योधन के मान से बढ़कर, तुमने जो सम्मान किया।
मानवता को अभयदान दे, स्वर्णिम एक विहान दिया।
मर्यादित इस भाव को सुन मैं स्वंय यहाँ
उत्कर्ण बना।
अब जाना मैं पहचाना, कैसे ये निर्भय कर्ण बना।
-०-
2-दोहे
अनिता
मंडा
1.
होठों पर हैं चुप्पियाँ, भीतर कितना शोर।
सूरज ढूँढे खाइयाँ, आये कैसे भोर।।
2.
परछाई हैं रात की, बुझी -बुझी सी भोर।
उजियारे के भेष में, अँधियारे का चोर।।
3.
जुगनू ढूँढे भोर में, पतझड़ में भी फूल।
कुदरत के सब क़ायदे, लोग गए हैं भूल।।
4.
प्रतिलिपियाँ सब नेह की , दीमक ने ली चाट।
पांडुलिपि धरे बैर की, बेच रहे हैं हाट।।
5.
सूनी घर की ड्योढियाँ, चुप हैं मंगल- गीत।
जाने किस पाताल में, शरणागत है प्रीत।।
-0-
श्वेता जी एवं अनिता जी के सारगर्भित रचनाकर्म हेतु हार्दिक बधाई. शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeletevaha kya baat hai bahut bahut badhai
ReplyDeleteवाह ... अद्भुत सृजन ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेखन आप दोनों का ।
हार्दिक बधाई श्वेता जी एवं अनिता जी
श्वेता जी और अनिता जी को इस सुंदर लेखन के लिए बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचनाएँ , हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteबहुत ही प्यारा सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई श्वेता जी एवं अनिता जी !
बहुत खूबसूरत सृजन ।
ReplyDeleteकर्ण के मनोभावों की बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति है, बहुत बधाई |
ReplyDeleteअनीता जी को भी उम्दा दोहों के लिए बहुत बधाई