पथ के साथी

Wednesday, January 17, 2018

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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र
1-माँ-         
कभी वो हाथ
सुकोमल से
फेरती थी
मेरे सर पर
तो मैं कहता
माँ !
क्यों बिगाड़ती हो मेरे बाल
समझ नहीं पाता था
उसके भाव
पर, आज वो ही हाथ
सूखकर पिंजर हो ग

अब मैं चाहता हूँ
वो मेरे सर पर
फिर से
फेरे हाथ
चाहे मेरे बाल
क्यों ना बिगड़ जा
एँ
बस, ये ही तो अंतर है
बालपन में
और आज की समझ में |
पर अब माँ
बिगाड़ना नहीं चाहती
सरके बाल
वो चाहती है
मैं ,बैठूँ उसके पास
देना नहीं, लेना चाहती
मेरा हाथ अपने हाथ में
बिताना चाहती है कुछ
पल
बतियाना चाहती मुझसे,
पा लेना चाहती है,
      अनमोल निधि जैसे...
-0-
2-गुनगुनी सी धूप में

जनवरी की गुनगुनी सी धूप में
क्या निखार आया है तेरे रूप में
थोथा -थोथा उड़ गया है देखिए
भारी दाना रह गया है सूप में
रात रानी बनी दिन राजा हुए
सुबह-शाम दोनों बने प्रतिरूप में
ओस की बूँदें मोती सी लगे
धुँध छाई प्रीति के स्वरूप में
अलग-अलग लबादे ओढ़े हुए
आदमी कैसा बना बहुरूप में
कैसा उड़ रही 'व्यग्र' पानी से  धुँ
आग जैसे लगी हो सारे कूप में

-0-
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र',  कर्मचारी कालोनी,गंगापुर सिटी (राज.)322201,  मोबा : 9549165579
ई-मेल :-vishwambharvyagra@gmail.com

10 comments:

  1. सुन्दर रचनाएँ, व्यग्र जी बधाई।

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  2. सुंदर एवम् भावपूर्ण रचनाओं हेतु विश्वम्भर पाण्डेय व्यग्र जी को हार्दिक बधाई।

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  3. सुंदर कविताएँ! 'माँ' ... मन को छू गई..
    हार्दिक बधाई व्यग्र जी!!!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  4. मन को मोहनें वाली रचनाएँ ...बहुत-बहुत बधाई व्यग्र जी आपको !!

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  5. मर्मस्पर्शी ... मनभावन रचनाएँ !
    बहुत बधाई 'व्यग्र' जी !!

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  6. बहुत सुंदर कविताएँ......व्यग्र जी बधाई।

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  7. उम्दा प्रस्तुति!!नमन

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  8. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति खास तौर पर माँ पर । व्यग्र जी बधाई स्वीकारें ।

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  9. आदरणीय व्यग्र जी--- बहुत ही अच्छी कवितायेँ हैं आपकी | खासकर माँ पर रचना भावुक कर देने वाली है | सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुतिकरण के लिए हार्दिक शुभकामनाएं----------

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  10. वक्त कैसे इंसान की इच्छाओं और भावनाओं को बदल देता है, 'माँ' में इसका बहुत सूक्ष्म चित्रण कर दिया है आपने...| बरबस छू गई मन को...| दूसरी कविता भी बहुत अच्छी है |
    मेरी बहुत बधाई...|

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