1-प्यार की बातें करें
डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आइए कुछ प्यार की बातें करें।
बेवजह क्यों मौत से पहले मरें।
बेवजह क्यों मौत से पहले मरें।
हौंसले मन में सलामत हैं अगर,
आइए,क्यों मुश्किलों से हम डरें।
आइए,क्यों मुश्किलों से हम डरें।
ये आँधियाँ, तूफ़ान आएँगे जरूर,
हौंसले सब के दिलों में हम भरें।
हौंसले सब के दिलों में हम भरें।
ये अँधेरे खुद-ब-खुद मिट जाएँगे,
आइए,अब रौशनी बन हम झरें।
आइए,अब रौशनी बन हम झरें।
कोई आए या न आए मदद को,
'अरुण' सबके वास्ते अब हम ढरें।
-0-पूर्व प्राचार्य,74/3,न्यू नेहरू नगर,रुड़की-247667
'अरुण' सबके वास्ते अब हम ढरें।
-0-पूर्व प्राचार्य,74/3,न्यू नेहरू नगर,रुड़की-247667
2-बिछुआ
उसके पैर का
डॉ. कविता भट्ट
(दर्शन शास्त्र विभाग,हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड)
(दर्शन शास्त्र विभाग,हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड)
कांच-बर्फ
के फर्श पर सर्द सुबहें लिये, काँपता ही रहा मैं सिर के बल चलता हुआ
जेठ की धूप में गर्म श्वांसें भरते हुए,
एक-एक बूँद को रहा तरसता जलता हुआ
हूँ गवाह- उसके पैरों की बिवाइयों का,
ढलती उम्र की उँगलियों से फिसलता हुआ
सिमटा हुआ सा गिरा हूँ- आहें लिये,
सीढ़ीनुमा खेत- किसी मेड पर सँभलता हुआ
ढली उम्र; लेकिन मैं बिछुआ- उसके पैर
का अब भी हूँ; पहाड़ी नदी- सा मचलता हुआ
रागिनी छेड़कर रंग सा बिखेरकर; कुछ
गुनगुनाता हूँ अब भी पहाड़ सा पिघलता हुआ
वृक्षों के रुदन सा भरी बरसात में;
आपदा के मौन का वीभत्स स्वर निगलता हुआ
मैं हराता गया- ओलों-बर्फ को, तपन-सिहरन
को, अंधियारी गर्त से निकलता हुआ
चोटी पे बज रही धुन मेरे संघर्ष की,
गाथाओं के गर्भ में मेरा संकल्प पलता हुआ
-0-
3 –परिवेश
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
गंगा
का किनारा
अनगिनत प्रज्वलित दीए
पवित्र धूप की खुशबू
घण्टियों की मधुर धुन
आरती का सस्वर गान,
अनायास ही मन हो जाता है
सात्विक
जुड़ जाते हैं हाथ
झुक जाते हैं सर
किसी ने नहीं कहा तुम ऐसा करो
पर
स्वतः होता है सब कुछ
हमारे अंदर का देवत्व
उस परमपिता के आगे हो जाता है
नतमस्तक
अर्थात हम बुरे या अच्छे
नहीं हैं
हमारा परिवेश करता हैं
हमारा निर्माण
और हमारे संस्कारों का
परिष्कार ।
-0-
Satyaranchi732@gmail.com
4- एक नाज़ुक थी कली
श्वेता राय
एक नाज़ुक थी कली वो।
झर गई है अधखिली जो।
झर गई है अधखिली जो।
मन कनक सम वो सुहाई।
माघ में जब गोद आई।
उर्मियों से दीप्ति लेकर,
जग हृदय पर खूब छाई।
माघ में जब गोद आई।
उर्मियों से दीप्ति लेकर,
जग हृदय पर खूब छाई।
श्वास में सबके घुली वो।
झर गई है अधखिली जो।।
झर गई है अधखिली जो।।
थी प्रथम कुरुक्षेत्र में वो।
नेह रखती नेत्र में वो।
छू गई सोपान पहला,
रुग्णता के क्षेत्र में वो।
नेह रखती नेत्र में वो।
छू गई सोपान पहला,
रुग्णता के क्षेत्र में वो।
चाँदनी मधु से जली वो।
झर गई है अधखिली जो।
झर गई है अधखिली जो।
मलयनिल जब बह रही थी।
ताप वो अति सह रही थी।
जूझती थी आस से पर
मृत्यु उसको गह रही थी।
ताप वो अति सह रही थी।
जूझती थी आस से पर
मृत्यु उसको गह रही थी।
हाथ नियति के तुली वो।
झर गई है अधखिली जो।
झर गई है अधखिली जो।
सेज पर लेटी सुहागन।
स्वप्न दृग में भर सुहावन।
बन गई निष्ठुर जगत से,
छोड़ कर सुत एक पावन।
स्वप्न दृग में भर सुहावन।
बन गई निष्ठुर जगत से,
छोड़ कर सुत एक पावन।
मोड़ मुँह सबसे चली वो।
झर गई है अधखिली जो।
-0-झर गई है अधखिली जो।
आदरणीय योगेंद्र जी आशा से भरी रचना ...बेवज़ह क्यों मौत से पहले मरें ..बहुत सुंदर
ReplyDeleteबिछुआ उसके पैर का ..अति सुंदर रचना कविता जी
सत्या जी भावपूर्ण रचना वाह...हमारा परिवेश करता है हमारा निर्माण
श्वेता जी मनभावन रचना अति सुंदर
हार्दिक आभार
Deleteउम्दा रचनाएं...आप सभी को बहुत बधाई!
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteमनमोहक कृति .... बहुत ही उम्दा रचना ... Thanks for sharing this!! :) :)
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteक्यों मौत से पहले मरें? योगेंद्र जी बड़ी प्रेरणामयी उत्साह वर्द्धक है यह । आशावादी बनाने वाली ।
ReplyDeleteबिछुआ उसके पैर का में कविता जी आपने बिछुआ के बहाने नारी के कठोर जीवन की दास्ताँ कह दी ।मन को छू गई ।
परिवेश - सत्या जी सही कहा आपने परिवेश सात्विक हो तो संस्कार भी अपने अाप अच्छे मिल जाते हैं ।कहने समझाने की जरूरत नहीं पड़ती ।
श्वेता राय एक नाजुक कली की मार्मिक भावपूर्ण रचना भी अनुपम है । हृदय तल को छू गई ।
सब रचना कारों को हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार
Deleteसुन्दर प्रस्तुति ..सभी को बधाई !
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteआप सभी स्नेही जनों को हार्दिक धन्यवाद एवं आभार
ReplyDeleteडॉ. कविता भट्ट
ReplyDeleteमनभावन प्रस्तुति ..सभी को बधाई !!!
अलग अलग से भावों वाली इन सभी सुन्दर रचनाओं के लिए आप सभी को हार्दिक बधाई...|
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