अनिता मण्डा
जंगल
के पेड़ों की तरह
हमें
सँवारा गया
बगीचे
की क्यारियों -सा
जहाँ
हम उगे, पले, बढ़े
छोड़नी
पड़ी जगह, जड़ें
बिना
आह ,शिक़वे के
जो
भी मिला बागबाँ
हमने
वो अपना लिया
तभी
तो बेतरतीब से
नहीं
सहा विस्थापन
थोड़े
संवेदनहीन से
उभर
आता है जंगलीपन
सभ्यता
के मुखौटों के बीच
छुपाते
हम अपना तन –मन
आँखों
की चौखटों के बीच।
-0-
(चित्र गूगल से साभार)
(चित्र गूगल से साभार)
मेरी रचना को यहां स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteअनीता मण्डा जी आप की कविता
ReplyDeleteपरवरिश की यह पंक्तियाँबहुत अच्छी लगी … नही सहा विस्थापन / थोड़े संवेदन हीन से । … और यह वाली। … छुपाते हम अपना तन मन /आँखों के चौखटों के बीच … काश ! संवेदन हीन … विस्थापन के दर्द को समझ पाये कभी।
अनीता जी आपकी कविता की ये पंक्तियाँ छोडनी पडी जगह बिना आह ....बहुत अच्छी लगी |मुबारक हो |
ReplyDeleteसार्थक, प्रभावपूर्ण रचना अनीता जी.... बधाई!
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण रचना । बधाई ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteअनिता जी शुभकामनाएँ !
सुन्दर मर्मस्पर्शी कविता, अनीता जी को बधाई !!
ReplyDeletebahut hi sunder kavita.ubhar ata hia jangalipan ,sabhyata ke mukhauton beech .vastav mein dikhavi shaleenta ki chadar par jangalipan ke chhipe rang ubhar hi ate hain.badhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
नमस्कार अनिता जी
ReplyDeleteबहुत ही ह्रदय स्पर्शी कविता
आप सभी का हार्दिक आभार।
ReplyDeletesundar v marmsparshee saath hi saarthak bhi..........is pyaari rachna. ke liye anita ji ko naman ke saath -saath badhai bhi .
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत ..लेकिन ..मन को एक कसक से भरती प्रस्तुति है अनिता जी ! रचना क्या है एक अहसास है जो आपके शब्दों में साकार हो गया है !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई बहुत शुभ कामनाएँ आपको !
बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteअनिता जी शुभकामनाएँ !
बहुत गहरी बात...सुन्दर भावाभिव्यक्ति...हार्दिक बधाई...|
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