पथ के साथी

Saturday, June 21, 2014

कुटिल मुस्कान

 डॉ.कविता भट्ट


1

पूरी ज़िंदगी बिता दी उनकी चाहत में हमने

किसी भी फरमाइश को इनकार न कर सकी।

 

हर रात को चाँद के माथे पर सिलवटें गहरी,

आईना देखा मगर खुद से प्यार न कर सकी।

 

मैं जानती थी मंशा उस कुटिल मुस्कान की,

लेकिन न जाने क्यों; तकरार न कर सकी।

 

'कविता' दमित चेहरे में खूबसूरत दिल है,

ख्वाहिशें हैं; मगर इसे दाग़दार न कर सकी।

-0-

2

छाया पतझड़ कुछ इस कदर था,

गुमाँ था; मगर मैं माली न बन सकी।

ख्वाबों से दूर सितारों का शहर था,

रोयी बहुत मगर रुदाली न बन सकी।

 

जीवन अमावस का ही मंजर था,

यह सूनी रात दिवाली न बन सकी।

समय के हाथ फूल, बगल में खंजर था,

जो पेट भर दे मैं वह थाली न बन सकी।

 

बहुत रोका मगर मौत ही उसका सफर था,

ज़हर थी, मैं अमृत की प्याली न बन सकी।

शिकायतें खत्म हुई सब- सूना पहर था

प्रेम शेष; ज़िंदगी यौवन की लाली न बन सकी।

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