डॉ.कविता भट्ट
1
पूरी ज़िंदगी बिता दी उनकी चाहत में हमने
किसी भी फरमाइश को इनकार न कर सकी।
हर रात को चाँद के माथे पर सिलवटें गहरी,
आईना देखा मगर खुद से प्यार न कर सकी।
मैं जानती थी मंशा उस
कुटिल मुस्कान की,
लेकिन न जाने क्यों; तकरार
न कर सकी।
'कविता' दमित चेहरे में खूबसूरत दिल है,
ख्वाहिशें हैं; मगर इसे दाग़दार न
कर सकी।
-0-
2
छाया पतझड़ कुछ इस कदर था,
गुमाँ था; मगर मैं माली न बन सकी।
ख्वाबों से दूर सितारों का शहर था,
रोयी बहुत मगर रुदाली न बन सकी।
जीवन अमावस का ही मंजर था,
यह सूनी रात दिवाली न बन सकी।
समय के हाथ फूल, बगल में खंजर था,
जो पेट भर दे मैं वह थाली न बन सकी।
बहुत रोका मगर मौत ही उसका सफर था,
ज़हर थी, मैं अमृत की प्याली न बन
सकी।
शिकायतें खत्म हुई सब- सूना पहर था
प्रेम शेष; ज़िंदगी यौवन की लाली न बन
सकी।
-0-
No comments:
Post a Comment