अभिषेक कुमार
इस रात के अँधेरे में,
एक सन्नाटा है
हवा एक सरगोशी -सी कर रही है
पूछ रही है
ये हवा आज,
इस गहरे सन्नाटे में
तू आज चुप क्यों है..
कोई गीत क्यों नहीं सुनाता
कोई नज़्म क्यों नहीं पेश करता
कौन
सी पुरानी बातों को मुट्ठी में बंद करूँ,
कौन सा गीत सुनाऊँ?
मैं भी तो इसी कशमकश में हूँ..
हर नज़्म आज रूठी है
हर गीत आज भूल गया हूँ
यादों
के तो कई लम्हे कैद हैं आँखों में,
मगर आज वो यादें
क्यों गीत बनने से इन्कार कर रही हैं?
ये मद्धम शीतल हवा आज
तुम्हारे लम्स सी गर्माहट लिए हुए है
कायनात के हर कोने से जैसे
तुम्हारी आवाज़ सुनाई देने लगी है..
इस सफेदपोश रात में
धीरे धीरे मैं खोता ही जा रहा हूँ कहीं..
चलने लग गया हूँ माज़ी की उन पगडंडियों पर
और अचानक चलते चलते
एक तूफ़ान उठा,
और
उन माजी की हसीन गलियों से ला पटक.
फेंक दिया मुझे फिर इस तनहा रात में..
जहाँ बस बेपनाह अँधेरा है
सन्नाटा है
और मैं हूँ !
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email id: cseabhi@gmail.com
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुुत खूब ।
ReplyDeleteजहाँ बस बेपनाह अँधेरा है
ReplyDeleteसन्नाटा है
और मैं हूँ !
खामोश पीड़ा की संवेदनाओं मार्मिक चित्रण रचना में चार चाँद लगा रहें हैं .
बधाई
सन्नाटा है
ReplyDeleteऔर मैं हूँ !
sunder soch dard ka marmik chitran hai
badhai
rachana
दिल को छू जाने वाली एक सुन्दर रचना...बधाई...|
ReplyDeletehar nazm aj ruthi hai . ...... sanata hai, aur main hun. bahut bhav purn rachana hai. badhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
मेरी कविता को यहाँ लगाने का बहुत बहुत शुक्रिया काम्बोज अंकल !
ReplyDeleteमाज़ी अक्सर हाल को ख़ामोश कर देता है....
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना !
~सादर
अनिता ललित
बहुत सुंदर भावों से ओत प्रोत कविता है |बधाई |
ReplyDeleteमन को छू लेने वाली अभिव्यक्ति ..बहुत बधाई !!
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