डॉ एस. पी. सती
1.विनाश का तांडव स्तोत्र
घाटियों को पात्र बना कर
बाँधो का अम्बार लगा है
जर्रा-जर्रा नदी तटों का
मलवे से जो पटा पड़ा है
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
धन-भक्तों की हवस बना है
पहाड़ पूरी दुकान-सा सजा है
बदरी से केदार गंगोत्री
बिके पड़े हैं दुकां-दुकान में
क्रोध भरा है हिमनग में जब
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
बाँधो का अम्बार लगा है
जर्रा-जर्रा नदी तटों का
मलवे से जो पटा पड़ा है
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
धन-भक्तों की हवस बना है
पहाड़ पूरी दुकान-सा सजा है
बदरी से केदार गंगोत्री
बिके पड़े हैं दुकां-दुकान में
क्रोध भरा है हिमनग में जब
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
लाशों का अम्बार लगा है
रामबाड़ा अटा पड़ा है
कौवे-गिद्धों की दावत है
नुची लाश की अँतडियों से
घास के गुच्छे निकल रहे है
गिद्धों की सेवा लेकर तुम
लाशें कम कर दिखा रहे हो
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
अविनाशी शिव चहुँ ओर से
विनाश का उद्घोष करे हैं
हतप्रभ करने वाला है यह
मगर तुम नहीं समझ रहे हो
हिमप्रदेश का धैर्य दरक कर
विनाशलीला मचा रहा है
सभी जानते अपराधी को
किसको मूरख बना रहे हो
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है?
अमन बह गया चमन बह गया
डर तुमको बस कुर्सी का है
तुमको मौतों में भी अवसर
पर ढूँढ़े मिल नहीं रहा है
तुम बेशरम-बेहया तुम्हारे
मानवता के दुश्मन सारे
वों दिन अब बस दूर नहीं है
जब फटेंगे कुर्ते सारे
होगी जनता जब सड़कों पर
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है..
अमन बह गया चमन बह गया
डर तुमको बस कुर्सी का है
तुमको मौतों में भी अवसर
पर ढूँढ़े मिल नहीं रहा है
तुम बेशरम-बेहया तुम्हारे
मानवता के दुश्मन सारे
वों दिन अब बस दूर नहीं है
जब फटेंगे कुर्ते सारे
होगी जनता जब सड़कों पर
तुम कहते हो गुस्सा क्यों है..
-0-
2. तुम्हें
उठना ही होगा
उठो तुम्हें उठना ही होगा
चले गए सैलानी जबसे
मरघट -सी खामोशी है,
जार-जार रोती है घाटी
गाँव-गाँव में मातम है.
एक गाँव में पौध मिट गई
बना दूसरा विधवा बस्ती
एक पूरा उजड गया तो
घाटी का ही बुझे है चूल्हा
ज़िंदा नहीं हैं खड़े हैं जितने
उनसे कहीं अधिक मरे हैं
मुर्दे लानत दें चीखकर
जिन्दा मगर खामोश खड़े हैं
ऐसा मंजर जहाँ-तहाँ है
कौन किसी का कहाँ -कहाँ है
मौत का तांडव ऐसा देखा
जर्रा-जर्रा काँप उठा है....
पर अब तुम सन्नाटा तोड़ो
हतप्रभ रहने से क्या होगा
उठो पुनः निर्माण करो अब
साँसे भरने लगो उठो फिर
खोया सबकुछ फिर आएगा
जिन्दा तुम हो यकीं करो तो
कमर बाँध कर अँगड़ाई लो
यही नीति है यही धर्म है
तुम ना थके हो तुम ना थकोगे
क्रन्दन को तू बदल चीख में
तू ही खुद है भाग्य विधाता
तू ही सर्जक कर्मवीर तू
जिन पर तू है आस लगाए
वे कव्वे है गिद्ध भेड़िए
वे तुझको बस नोच सके हैं
तू उनसे उम्मीद ना कर
तू खुद नव निर्माण करेगा
नवसर्जन का प्राण बनेगा
उठो धरा फिर सजना है
उठ शंकर तू धारी भी तू
उठो-उठो अब बहुत हो चुका
मरघट को ज़िंदा करना है ।
मरघट -सी खामोशी है,
जार-जार रोती है घाटी
गाँव-गाँव में मातम है.
एक गाँव में पौध मिट गई
बना दूसरा विधवा बस्ती
एक पूरा उजड गया तो
घाटी का ही बुझे है चूल्हा
ज़िंदा नहीं हैं खड़े हैं जितने
उनसे कहीं अधिक मरे हैं
मुर्दे लानत दें चीखकर
जिन्दा मगर खामोश खड़े हैं
ऐसा मंजर जहाँ-तहाँ है
कौन किसी का कहाँ -कहाँ है
मौत का तांडव ऐसा देखा
जर्रा-जर्रा काँप उठा है....
पर अब तुम सन्नाटा तोड़ो
हतप्रभ रहने से क्या होगा
उठो पुनः निर्माण करो अब
साँसे भरने लगो उठो फिर
खोया सबकुछ फिर आएगा
जिन्दा तुम हो यकीं करो तो
कमर बाँध कर अँगड़ाई लो
यही नीति है यही धर्म है
तुम ना थके हो तुम ना थकोगे
क्रन्दन को तू बदल चीख में
तू ही खुद है भाग्य विधाता
तू ही सर्जक कर्मवीर तू
जिन पर तू है आस लगाए
वे कव्वे है गिद्ध भेड़िए
वे तुझको बस नोच सके हैं
तू उनसे उम्मीद ना कर
तू खुद नव निर्माण करेगा
नवसर्जन का प्राण बनेगा
उठो धरा फिर सजना है
उठ शंकर तू धारी भी तू
उठो-उठो अब बहुत हो चुका
मरघट को ज़िंदा करना है ।
-0-
ज्योलॉजी विभाग
हेमवती नन्दन बहुगुणा विश्वविद्यालय
श्रीनगर ( गढ़वाल), उत्तराखण्ड-246174
मोबाइल
+91 9412949550
ई-मेल-spsatihnbgu@gmail.com
sunder soton ko jag ne wali anubhutiyan. badhai .
ReplyDeletepushpamehra.
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Deleteसहज साहित्य में डॉ एस पी सती की दोनों कविताओं को पढ़ा. संपादक जी और लेखक महोदय, दोनों को बधाई ! वर्षों बाद कुछ ऐसा पढ़ा जो सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखा गया है / मन से लिखा गया है और जो इस बात का गवाह है कि इंसान और उसकी संवेदनशीलता, अभी दोनों मौजूद हैं और इसलिए लेखक / कवि यह कहने का हौसला रखता है कि " अमन बह गया चमन बह गया / डर तुमको बस कुर्सी का है ..." और सबसे बड़ी बात यह है कि यही कवि अपने भावों को नियंत्रित करते हुए सृजन की तरफ बढ़ता है और आह्वान करता है," पर अब तुम सन्नाटा तोड़ो/ तू खुद नव निर्माण करेगा/........ उठो-उठो अब बहुत हो चुका / मरघट को ज़िंदा करना है । विश्वास हो चला है कि अभी सब कुछ मिटा नहीं है, अभी सभी कुछ मरा नहीं है....देख सामने मरघट को, विश्वास अभी भी डिगा नहीं है।" मैं इस सृजन को देख डॉ सती को अपनी शुभकामनाएं देता हूँ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रेरणादायक..
ReplyDeleteढहकर उठना रीति बना लो,
ReplyDeleteपीड़ा को ही प्रीति बना लो।
अतिसुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteदोनों रचनाओं में से एक रचना जितना मन को उद्वेलित करती है... दूसरी उतना ही उत्साह का संचार भी करती है...~एक आह्वाहन है.... जिसे हम सबको सुनकर आगे क़दम बढ़ाना चाहिए....
~सादर!!!
कटु सच्चाई बेबाकी से बयान करती, हृदय को छू लेने वाली कविताएं। तहस-नहस हुए पहाड़ के पुनर्निर्माण और जनजीवन को आशा का संदेश देती हैं ये दोनों कविताएं। - देवेंद्र मेवाड़ी
ReplyDeleteभयंकर त्रासदी की साक्षी पंक्तियाँ मन की व्यथा ,व्याकुलता को साकार भी करती हैं और पुनः नए सृजन का आह्वान भी करती हैं |
ReplyDeleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
भावमई रचना...
ReplyDeletebahut accha laga ki hamare sati sir ne apni bhaavnaao ko kavita k maadhyam se ham tak pahunchaayaa......
ReplyDeleteदिल में उतरने वाला काव्य ... मानवता के विनाश की कहानी जो प्राकृति के हाथों इंसान ने लिखवाई ...
ReplyDeleteनव सृजन का आह्वान करती दूसरी रचना भी बहुत प्रभावी ...
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Deleteदिल को छू गयी दोनों रचनाएँ...बहुत मार्मिक...|
ReplyDeleteप्रियंका
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Deletethanks to all
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