पथ के साथी

Monday, November 7, 2011

चुप्पी से झरे(ताँका)


चुप्पी से झरे
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
सागर नहीं
सिरजते दूरियाँ
मन ही रचे ।
सूरज न तपाए
मन आग लगाए ।
2
भिगो गई है
भावों की बदरिया
चुपके से आ
जनम -जनम की
जो सूखी चदरिया ।
3
चुप्पी से झरे
ढेरों हारसिंगार
अबकी बार
देखा जो मुड़कर-
ये थे बोल तुम्हारे ।
4
भीगे संवाद
नन्हीं -सी आत्मीयता
बनके पाखी
उड़ी छूने गगन
भावों -से भरा मन ।
-0-


21 comments:

  1. बड़ी ही सुन्दर शब्द संरचना, अपना अर्थ पूर्णता से संप्रेषित करती हुयी।

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. चुप्पी से झरे
    ढेरों हारसिंगार
    अबकी बार
    देखा जो मुड़कर-
    ये थे बोल तुम्हारे

    बहुत सुन्दर ... अच्छी प्रस्तुति

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  4. बहुत ही सुन्दर लगे आपके ये तांके… जीवन की सूक्ष्म और कोमल भावनाओं को तांका रूपी कविता में आपने बहुत बखूबी निभाया है…बधाई

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  5. बेहतरीन क्षणिकाएं। पहली वाली सबसे ज्‍यादा अच्‍छी लगी।

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  6. सभी ताँका बेहद भावपूर्ण है और संवेदना से भी भरे हैं.बधाई!भाई साहब !बहन डॉ अनीता कपूर

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  7. सागर नहीं / सिरजते दूरियाँ / मन ही रचे ...

    सही कहा अपने... दूरी मीलों की नहीं मन की होती है... इन पंक्तियों ने तो बस मन मोह लिया... इतनी सुन्दर बात, इतने गहरे भाव, इतने कम शब्दों में पूरी गरिमा के साथ व्यक्त हुये हैं... बहुत सुन्दर रचना...
    सादर
    मंजु

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  8. नाज़ुक और कोमल एहसास के साथ भावपूर्ण क्षणिकाएं लिखा है आपने जो मुझे बेहद पसंद आया ! बधाई!

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  9. गरिमामयी एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति...सभी ताँका बहुत सुन्दर...

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  10. भिगो गई है
    भावों की बदरिया
    चुपके से आ
    जनम -जनम की
    जो सूखी चदरिया ।

    इतनी सुंदर भावपूर्ण क्षणिकाएं कि बस मन आनंद बिभोर हो गया. आभार.

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  11. बहुत सुन्दर ..प्यारी रचना ...कोमल .....
    बधाई
    भ्रमर ५

    चुप्पी से झरे
    ढेरों हारसिंगार
    अबकी बार
    देखा जो मुड़कर-
    ये थे बोल तुम्हारे

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  13. भिगो गई है
    भावों की बदरिया
    चुपके से आ
    जनम -जनम की
    जो सूखी चदरिया ...

    भावों की बदरिया bahut khub pryog kiyaa hai ...bahut soft bahut achchhaa eakdam man ko sparsh kartaa huaa...bahut2 badhai...

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  14. भिगो गई है
    भावों की बदरिया
    चुपके से आ
    जनम -जनम की
    जो सूखी चदरिया ।

    चुप्पी से झरे
    ढेरों हारसिंगार
    अबकी बार
    देखा जो मुड़कर-
    ये थे बोल तुम्हारे ।

    हरसिंगार की महक समाई है इन पंक्तियों में बार बार पढ़ने को मन करता है ...

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  15. चुप्पी से झरे
    ढेरों हारसिंगार
    अबकी बार
    देखा जो मुड़कर-
    ये थे बोल तुम्हारे ।
    बहुत सुंदर तांका पर यह वाला तो मन को छू गया.
    धन्यवाद.
    सादर,
    अमिता

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  16. नन्हीं -सी आत्मीयता
    बनके पाखी.बहुत सुन्दर.

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  17. भिगो गई है
    भावों की बदरिया
    चुपके से आ
    जनम -जनम की
    जो सूखी चदरिया ...

    इस तांके में तो सूफ़ियाना आनन्द मिला है...बहुत ही खूबसूरत...।

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